Thursday, July 31, 2025

दिल की आवाज

                                 (1)


मालूम है इन बारिश की बूंदों ने भी बेइंतेहा मुहब्बत की होगी कभी।

तभी तो ज़मीन से मिलने के लिए इतना नीचे गिरना पड़ता है इन्हें भी।।

   

                                   (2) 


होना तो बहुत कुछ नहीं चाहिए था,

करना तो बहुत कुछ नहीं चाहिए था।

पर सब होता चला गया,

वक़्त मेरे साथ और मैं वक़्त के साथ उलझती चला गया।।


                                   (3)

 

तुम वह वक्त थे जिसे मैं रोक नहीं पाईं,

मैं वह पल थीं जिसे तुम थाम नहीं पाये।



                                  (4)


अब छोड़ो तुझमें वह बात नहीं है,

इसीलिए तेरी आरजू साथ नहीं हैं।

बहुत रो चुके हैं तुम्हारे लिए,

अब मुस्कुराना है अपने लिए।।



                                 (5)


अंधेरी रातों में बहुत जाग चुके हैं हम,

तेरे पीछे बहुत भाग चुके हैं हम।

तुझसे जुड़ी हर याद को भुला रहे है हम,

जा अब तुझे से दूर जा रहे हैं हम।।



                                 (6)


हम उनसे हर लम्हें में मुहब्बत करते रहे,

वह हमसे हर लम्हें में नफ़रत करते रहे।

हमने हर दुआ में उन्हें मांगा था,

उन्होंने हर दुआ में किसी और को मांगा था।

हमारी दुआएं उनकी सलामती की थीं,

उनकी दुआएं अपनी खुशी की थीं।

हर पल नज़रे उन्हें देखना चाहतीं हैं,

उनकी नज़रों किसी और को चाहतीं हैं।

यह इश्क़ भी कमबख्त मेरा ऐसा है,

जिसे हम चाहते है वह किसी और का है।।

Wednesday, July 30, 2025

बहन या सखी

 "अमोली तुम कितना टाइम लेती हो।" घर में अगर दो बाथरूम न हो तो मैं रोज़ ऑफिस के लिए लेट हो जाऊं। रिचा की आवाज़ किचन से बाथरूम तक गूँज रहीं थीं। रिचा अमोली के ऊपर बड़बड़ाती जा रही थी और साथ ही ऑफिस के लिए तैयार हो रही थीं। तभी बाथरूम में से पानी गिरने की आवाज़ बंद हो जाती हैं, अमोली बाथरूम से निकलती है और गीले बालों को तौलिया से सुखाते हुए कहती हैं क्यों सुबह -सुबह अपना बी पी बढ़ाती हो, कहकर जल्दी से तैयार होने लगती हैं और साथ दीदी को बोलती है आज तो लेट हो जाऊँगी कॉलेज पहुंचने में। यह कहकर जल्दबाजी में अमोली गीली तौलिया बिस्तर पर डाल फटाफट तैयार होती है तभी बिस्तर पर गीला तौलिया पड़ा देखा रिचा अमोली पर फिर बड़बड़ाती है। अमोली तेरा रोज़ का है देर से सो कर उठती है फिर भागम भाग में कॉलेज के लिए तैयार होना और चीज़े इधर उधर फेंकना और तौलिया तो रोज़ बिस्तर पर ही डालती है और रोज़ उसके लिए मैं तुझे टोकती हूं पर तुम पर तो कोई असर ही नहीं पड़ता मेरी बातों का।

अमोली फिर भी बातों को अनसुना करते हुए बैग उठाती हैं,  जूते पहनकर, टेबल से सैंडविच हाथ में लेकर कहती है दीदी कोई नहीं इन बातों को शाम को डिस्कस करते है अभी लेट हो गया शाम को डांट लेना और बाय बोल वह कॉलेज के लिए निकल जाती है। 

दरवाज़ा तेज़ी से बंद हुआ और रिचा वहीं खड़ी रह गई—हाथ में तौलिया लिए, माथे पर शिकन लिए। उसने गहरी साँस ली और मन ही मन बुदबुदाई- इसकी रोज की यही आदत है। मैं रोज ही बोलती हूँ और गलती से भी इस लड़की पर कोई असर नहीं पड़ता।

शाम के करीब 7 बज रहे थे। रिचा ऑफिस से लौटते ही सीधे किचन में घुस गई। आदतन उसने पर्स टेबल पर रखा, और फ्रिज से पानी निकालकर गिलास में पानी लिया। घड़ी की ओर देखा अभी तक अमोली घर नहीं आयीं थी।

आज फिर देर कर दी इस …” वह मन में बुदबुदाई।

लेकिन इस बार उस बुदबुदाहट में गुस्सा नहीं था, बस एक चिंता थी, जो अब अक्सर होने लगी थी। कुछ देर बाद ही दरवाज़े की घंटी बजी रिचा तेज़ी से दरवाज़े की ओर जाती हैं और दरवाज़ा खोलती हैं और तभी अमोली हल्की-सी साँस छोड़ते हुए घर के अंदर दाखिल होती। उसका चेहरा थका हुआ था, आँखों के नीचे हलके-काले घेरे और कंधे पर ढीला पड़ा बैग जैसे कह रहा हो –"आज का दिन भारी था।"

रिचा कहती हैं घड़ी देखा, "आज भी 7 के ऊपर हो रहा हैं।"

रिचा की आवाज़ तेज़ तो नहीं थी, पर सीधी और सख़्त जरूर थीं।

अमोली ने बस हल्के से सिर हिलाया, जैसे कह रही हो – “हाँ, मालूम है।”

वह बिना कुछ बोले सीधे अपने कमरे में चली गई। रिचा कुछ पल के लिए रुकी और फिर उसके पीछे-पीछे उसके कमरे में गई। कमरे में अमोली ज़मीन पर बैठी थी, जूते उतार रही थी और चुपचाप नीचे देख रही थी।

रिचा ने अमोली से पूछा  "क्या हुआ?"

रिचा का स्वर अब कुछ मुलायम हो गया।

अमोली ने नजरें उठाईं। कुछ देर चुप रही। फिर बोली,

"आज क्लास के बाद लाइब्रेरी में रुक गई थी। असाइनमेंट सबमिट करना था। लेकिन… वहाँ इतनी भीड़ थी… फिर लैपटॉप भी हैंग हो गया, और जब सब फॉर्म भर चुके थे, मेरा पेज लोड ही नहीं हुआ। फिर… फिर थोड़ी देर रुक गयी ।"

रिचा के चेहरे पर हैरानी आई, फिर बेचैनी से फिर क्या अमोली। रिचा पास आकर बैठ गई। अमोली फिर क्या थोड़ा वेट किया थोड़ी देर बाद फॉर्म जमा हो गया। फिर अचानक अमोली के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई।

"पर दीदी, शाम की डांट का क्या हुआ?"

रिचा हँस पड़ी, धीरे से उसका सिर सहलाया।

"रोज़ की डांट तो चलती रहेगी, पर.... अमोली बोली पर जब मैं इस तरह थकी हुई लौटकर आऊँ, तो बस खाना मिलना चाहिए और कोई सिर सहलाने वाला होना चाहिए… है न?"

अमोली ने चुपचाप अपना सिर दीदी की गोद में रख दिया।

रात को जब दोनों खाना खा रही थीं, अमोली बोली-

"तौलिया कल से बिस्तर पर नहीं फेंकूंगी।"

रिचा ने बिना देखे जवाब दिया, "और मैं तुम्हें रोज़ की तरह डांटना नहीं भूलूंगी।" दोनों हँस पड़ीं।

बहनों का यही तो रिश्ता होता है।

अगली सुबह।

रिचा बिस्तर से उठी, तो देखा- तौलिया इस बार बिस्तर पर नहीं था। वो मुस्कुराई, जैसे कोई छोटा सा वादा निभा लिया गया हो पर अगले ही पल उसका ध्यान गया- अमोली आज अभी तक नहीं उठी थी। घड़ी में 7:15 बज रहा था।

"अमोली - रिचा ने आवाज़ लगायी। कोई जवाब नहीं"।

वो चिंतित होकर अंदर गई- अमोली बिस्तर पर बैठी थी, घुटनों में सिर छिपाए कमरा अंधेरे में था, पर्दे बंद। अलार्म बजा, लेकिन उसने बंद भी नहीं किया।

रिचा धीरे से पास गई। "क्या हुआ?"

अमोली ने सिर उठाया उसकी आँखें लाल थीं। चेहरा उतरा हुआ, बाल बिखरे और होंठ सूखे।

"मैं नहीं जाना चाहती आज कॉलेज," वह बोली।

"क्यों?" रिचा ने पूछा 

"बस… मन नहीं कर रहा। कुछ दिन से मन बिल्कुल शांत नहीं है। लगता है कुछ ठीक नहीं चल रहा… पढ़ाई में मन नहीं लगता… प्रोफेसर की बातें सिर के ऊपर से जाती हैं… और हर चीज़ जैसे बोझ लगती है।"

रिचा ठिठक गई।

उसने पहली बार अमोली को इतने टूटे हुए अंदाज़ में देखा था।

"किसी से कोई बात तो नहीं हुई ?"

"नहीं… किसी से नहीं? 

बस सब तो कहते हैं 'बड़ी हो गई हो', 'स्ट्रॉन्ग बनो'… और तुम भी तो दीदी, रोज़ कहती हो — 'सुनना छोड़ो, करना सीखो'।"

रिचा कुछ पल चुप रही।

फिर धीरे से बोली, "मैंने कभी नहीं सोचा कि मेरी डांट भी कभी तुम्हारी चुप्पी बन सकती है।"

वह अमोली के पास बैठ गई, उसके कंधे पर हाथ रखा।

"अमोली, स्ट्रॉन्ग होने का मतलब ये नहीं कि सबकुछ सहो और चुप रहो। कभी-कभी टूट जाना भी ज़रूरी होता है। मैं हमेशा तुम्हारी बड़ी बहन रही, लेकिन शायद तुम्हारी दोस्त बनने में पीछे रह गई।" रिचा की आंखों से आँसू बह निकले जिसे देख अमोली की आँखों में आँसू आ गए। 

अमोली कहती है  "कभी-कभी लगता है… जैसे मैं कहीं जा ही नहीं रही। मैं बहुत कोशिश करती हूँ दीदी, लेकिन… शायद मैं उतनी अच्छी नहीं हूँ, जितना सब सोचते हैं।"

रिचा ने उसे कस कर गले से लगा लिया।

"तुम जैसी हो, वैसी ही बहुत अच्छी हो। तुम्हें साबित करने की ज़रूरत किसी को भी नहीं। बस खुद को थामे रखना सीखो… और जब थामना मुश्किल हो, तो याद रखना - मैं हूँ।"

उस कमरे में कुछ देर तक बस सिसकियों और खामोशियों की भाषा बोली जाती रही।

उसी शाम, रिचा ने अमोली के लिए एक कॉफी बनाई और उसकी किताबें खुद सहेज कर रखीं।

और अमोली ने पहली बार रिचा को ‘दीदी’ की बजाय ‘सखी’ कहा।

Monday, July 28, 2025

विश्वास की डोर

 जयश्री एक म्यूजिक टीचर थी। चेहरा शांत, व्यवहार सौम्य, सीधी सरल अपने स्कूल स्टाफ के बीच बेहद पसंद की जाने वाली - कभी किसी से बहस नहीं, हमेशा मदद को तैयार रहने वाली टीचर थीं पर यह कोई नहीं जानता था कि उसकी अपनी जिंदगी में असल में वह कैसी है और उसकी जिंदगी में क्या चल रहा हैं।

इसी जयश्री के पति दीपक ने सात साल पहले, अचानक से कहा था जयश्री "मुझे लगने लगा है कि मैं अब तुम्हें नहीं समझ पाता… शायद कभी समझा ही नहीं पाया।"

यह बात जयश्री को किसी तलवार की तरह उसके भीतर धँस गई थी।

दीपक चला गया। उसकी जिंदगी से… बिना झगड़े, बिना अल्फ़ाज़ के और अपने साथ ले गया उसका विश्वास- खुद पर, रिश्तों पर, दुनिया पर।

जयश्री ने किसी से कुछ नहीं कहा। न माता-पिता से,न रिश्तेदारों से और न ही समाज से।

“अकेली हूँ” यह स्वीकार करना उसे अपनी कमजोरी लगती थी। उसने बस इतना कहा था दीपक का विदेश गये कुछ समय के लिए।” सबने मान लिया। पर हर बार वो किसी बंद दरवाज़े को देखती रही जिसे उसने खुद ही बंद किया था क्योंकि अब उसे किसी पर विश्वास नहीं रहा।

इसी बीच एक दिन स्कूल में एक नए हिंदी टीचर की नियुक्ति हुई- राघव। उम्र में थोड़ा छोटा, पर नज़रों में गहराई थी। वह सभी से बोलता था, व्यवहार से सरल, किन्तु वाचाल था सभी से घुलने मिलने वाला जल्दी ही उसने स्कूल के सभी टीचरों के मन में जगह बना ली थीं। धीरे-धीरे बातचीत उसकी जयश्री से भी होती लेकिन जयश्री ने अपने चारो ओर एक दीवार बना रखी थीं इस बातको राघव समझता था पर कभी जयश्री से कहा नहीं।

एक दिन उसने जयश्री से  हिम्मत करके कहा- “आपकी आंखों में कुछ अधूरी कहानियाँ हैं।” जयश्री चौंकी। उसे पहली बार किसी ने इतने ध्यान से देखा था,

जैसे उसने चेहरे के पीछे की सच्चाई पढ़ ली हो। जयश्री को ठीक नहीं लगी राघव की बात क्योंकि उसने उसे इतना गहराई से उसे देखने और ऐसे बोलने की छूट नहीं दी थीं।

उस दिन जयश्री बिना कुछ बोले वहाँ से चली गई। कुछ समय बाद राघव ने फिर जयश्री से बातें शुरू की अब वह रोज़ थोड़ी-थोड़ी बातें करता- कभी कविता की, कभी मौसम की।

पर अब कहीं न कहीं उसके शब्द जयश्री के भीतर कहीं गूंजने लगे थे। जयश्री समझ नहीं पा रहीं थी। वह तो अपने चारों ओर एक रेखा खींच चुकी थी और विश्वास किसी पर करना तो सवाल ही नहीं था।

एक शाम राघव का फोन आया स्कूल के कुछ काम के सिलसिले में इधर उधर की बात के बाद राघव ने कहा,

“क्या मैं आपको एक बात कहूं, बुरा मत मानिएगा…

जयश्री थोड़ा संजीदा हो गई अब तक उसकी आवाज़ भी बदल गई जब वह कुछ बोल पाती तब तक राघव ने बोल दिया- मुझे लगता है आप किसी टूटे विश्वास से भाग रही हैं।”

जयश्री को लगा जैसे किसी ने नब्ज़ पकड़ ली हो। उसने हडबडाते हुए कहा राघव आपको ऐसा क्यों लगता हैं और उसने बात को वही खत्म करते हुए फोन काटने की कोशिश की पर राघव फिर बोला क्यों भाग रहीं हैं खुद से, और कहां भाग रही है और कबतक भागेंगी। कभी न कभी खुद पर और किसी और पर विश्वास तो करना पड़ेगा न जयश्री थोड़ा ठिठक गई अब तक वह कमजोर पड़ने लगी पहली बार किसी ने उसे पढ़ा था।जयश्री ने गहरी सांस ली और बस इतना कहा, “विश्वास… वो शब्द है जो एक बार चला जाए, तो लौटकर नहीं आता।” राघव चुप हो गया।

जयश्री ने राघव से कहा अब रखतीं हूँ और फोन काट दिया।

रात को जयश्री ने दीपक के पुराने मैसेज पढ़े।

कोई पछतावा नहीं था उसमें, कोई वापसी की चाह नहीं। वापस फोन रख दिया कुछ देर सोचने के बाद उसने 

फिर मोबाइल उठाया और राघव को सिर्फ एक पंक्ति भेजी:

“क्या हम सिर्फ बात कर सकते हैं… बिना कोई रिश्ता बनाए, बिना भरोसे की शर्त रखे?”

फोन स्क्रीन देर तक जलती रही… उधर से कोई जवाब नहीं आया। काफी देर इंतजार के बाद जब जवाब नहीं आया तो अनगिनत सवालों से उलझती हुई जयश्री कब सो गई पता न चला।

अगली सुबह उसकी आंख देर से खुली। रात नींद देर से आई थी पर आंखें भारी नहीं थीं। उसका फोन तकिए के नीचे था।

उसने डरते हुए स्क्रीन देखा —

राघव का जवाब आया था:

“बिलकुल।

हम शब्दों से शुरुआत करेंगे।

बिना किसी वादे, बिना किसी मांग के।”

जयश्री कुछ पल स्क्रीन देखती रही।फिर मुस्कुराई बहुत हल्की सी। शायद महीनों बाद।

आज बहुत देर हो गई थी इसलिए जयश्री जल्दी - जल्दी स्कूल समय से पहुंचने के लिए प्रयासरत हो गई।

स्कूल में राघव रोज की तरह स्टाफ रूम में पहले से मौजूद था। जयश्री आई - आँखों में हल्की चमक थी।

राघव ने देखा, मुस्कुराया, और गुडमॉर्निंग बोलकर अपने काम में लग गया। थोड़ी देर बाद राघव एक चाय का कप उसकी ओर बढ़ाता है- “चीनी कम, अदरक ज़्यादा, जैसी आपको पसंद है।” जयश्री चौंकी।  “तुमने कैसे जाना?”

राघव बोला  “शब्दों से नहीं, नजरों से जाना।” यह कह राघव हँसने लगा इस बार जयश्री भी हँसी - पर इस बार यह हँसी बाहर से नहीं, भीतर से आई थी।

दिन गुज़रते गए दोनों अच्छे दोस्त बन चुके थे अब 

हर दिन एक छोटी-सी बात- मौसम पर, किताबों पर, पुराने गानों पर।

कभी किसी ने अतीत नहीं खोला, न राघव ने पूछा, न जयश्री ने बताया।

बस एक अनकहा समझौता था —

“हम साथ हैं, पर किसी ‘नाम’ के बंधन में नहीं।

पर हर शाम, जब जयश्री घर लौटती, एक सवाल उसके भीतर गूंजता “क्या मैं दोबारा विश्वास कर सकती हूं?”

“या यह भी बस एक और धोखा होगा?”

फिर वह खुद से कहती- “नहीं, ये रिश्ता कोई मांग नहीं रहा।

यह बस साथ चल रहा है - जैसे नदी के साथ बहती हवा।”

अचानक एक दिन, राघव ने स्कूल से छुट्टी ली और कोई खबर नहीं दी। जयश्री थोड़ा परेशान हुई कि कहीं कुछ हुआ तो नहीं? दिन भर इंतजार के बाद बहुत हिम्मत करके उसने खुद पहल की पहली बार-

“आज तुम्हारी चाय छूट गई… उम्मीद है सब ठीक है।”

कुछ ही देर में जवाब आया “सब ठीक है। कल डबल चाय पिया जाएगा।” उसी रात जयश्री ने अपनी डायरी खोली।

बहुत दिनों बाद उसमें लिखा:

“शायद भरोसा कोई चीज़ नहीं होती जिसे हम किसी को ‘दे’ दें, वह तो बस उगता है धीरे-धीरे - जैसे सुबह की धूप उगती हैं।” हाँ पर विश्वास को खोते देर नहीं लगती।

अगली सुबह स्कूल जाते वक्त जयश्री ने मोबाइल उठाया।

उसका ध्यान व्हाट्सएप पर एक नए नंबर से आए मैसेज पर गया।

"जयश्री, मैं दीपक हूँ।

अगर बात करने का मन हो… तो मैं सुनना चाहता हूँ।

सिर्फ एक बार।" उसके हाथ ठिठक गए। दीपक इतने दिनों बाद! जिसने एक दिन कहा था, “मैं अब नहीं समझ पाता तुम्हें,” और बिना कुछ बोले चला गया था आज कह रहा हैं- “मैं सुनना चाहता हूँ।”

आज पूरे दिन जयश्री के मन में उथल-पुथल रही पूरे दिन वह खुद से लड़ती रही। “क्या मुझे जवाब देना चाहिए?”

“क्या ये अंत है?” “या एक और घाव खुल जाएगा?”

राघव स्टाफ रूम में क्लास ले कर वापस आया।

उसने जयश्री की आँखों में बेचैनी देखी,

जिसे वो अब बहुत अच्छे से पहचानने लगा था।

उसने जयश्री से पूछा “सब ठीक है?” जयश्री का जवाब आया 

“शायद नहीं… दीपक ने  इतने सालों बाद आज अचानक मैसेज किया है।”

राघव कुछ नहीं बोला वह अब तक समझ चुका था कि दीपक कौन हैं? सिर्फ इतना कहा -“अगर तुम बात करना चाहो, तो मैं साथ रहूंगा।

पर ये निर्णय तुम्हारा है — सिर्फ तुम्हारा।” स्कूल से छुट्टी के बाद शाम को, बहुत देर तक छत पर बैठने के बाद,

जयश्री ने दीपक को कॉल किया। फोन उठते ही वह बोली 

“क्या सुनना चाहते हो, दीपक?

मेरी चुप्पी की व्याख्या? या तुम्हारे ‘समझ ना पाने’ की माफ़ी?”

दीपक हिचका क्योंकि अब तक जयश्री की यह आवाज यह तरीका उसके लिए नया था 

दीपक ने कहा- “नहीं… मैं बस कहना चाहता हूँ कि मैंने उस वक्त बहुत कुछ नहीं देखा… और तुमने कुछ कहने नहीं दिया।”

जयश्री की आँखें भर आईं, पर आवाज़ सख्त रही —

“हाँ, मैंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि तब मेरा हर शब्द —

तुम्हारे ‘विश्वास’ से छोटा था।”

“अब कुछ कहना नहीं चाहती हूं। " "न ही कुछ सुनना चाहती हूँ।'"

अब सिर्फ खुद को सुनना चाहती हूँ।

और जानती हूँ। अब मुझे तुम्हारी ‘माफी’ की ज़रूरत भी नहीं हैं यह कह कर जयश्री ने कॉल काट दी।

कॉल काटने के बाद,

जयश्री ने आईने में देखा -और पहली बार, खुद को देखा।

बिना किसी मुखौटे के, बिना किसी शर्म के, बिना किसी पछतावे के।

उसने अपनी डायरी में लिखा:

“मैं टूटी थी, पर मैं झुकी नहीं।

मैंने खामोशी में बहुत कुछ सहा,

पर अब मैं बोल सकती हूँ - और सबसे पहले, खुद से।”

यह कि मैंने दीपक को तलाक दिया हैं।

अगले दिन जब वह स्कूल गई तो कुछ अलग थी।

चेहरे पर शांति थी, पर अब वो अंदर से थी पूरे आत्मविश्वास 

से भरी थीं अब जैसी बाहर थीं वैसे ही अंदर से थीं।

राघव पास आया और पूछा:

“आज कुछ हल्का लग रहा है?” और अच्छा भी लग रहा हैं।

“हाँ,” जयश्री मुस्कराई,

“क्योंकि आज मैं खुद पर भरोसा कर रही हूँ — पहली बार।

जयश्री मुस्कराते हुए राघव से कहती हैं-" विश्वास खोते देर नहीं लगती" पर विश्वास करने में उम्र बीत जाती हैं।

Sunday, July 27, 2025

तीज़ की रौनक

 हरियाली ओढ़े धरती मुस्काई,

बादल गगन में नाचे गाए,

नववधू-सी सजी ये प्रकृति,

तीज का उत्सव फिर से ले आई।


झूले पड़े हैं पीपल डाली,

हरियाली ने चूनर हैं डाली।

कंगन खनके, चूड़ी छनके,

सखियाँ मिलकर गीत हैं गाएँ।


पेड़ झूमते पवन के संग,

बाँध के झूले डाली पर,

सखियों संग, हँसी बिखर,

महके हर आँगन की डगर।


मेंहदी रचे, मन में उमंग,

श्रृंगार की बिखरी तरंग।

शिव-पार्वती का वरदान मिले,

हर सौभाग्यिनी का जीवन खिले।


सपनों के रंग सँवरे हैं,

मन के भाव निखरे हैं,

श्रृंगार में डूबी नारियाँ,

घूंघट में लाज से मुस्काई है।


पीहर की गलियों में चहकें,

सखियाँ सारी मिल जाएँ,

बचपन की यादें ताज़ा कर,

गीतों की गूँज फैल जाए।


हरियाली ओढ़े धरती मुस्काई,

बादल गगन में नाचे गाए,

नववधू-सी सजी ये प्रकृति,

तीज का उत्सव फिर से ले आई।

ईर्ष्या से आत्मबोध

 शालिनी की शादी को दस साल हो चुके थे। दो बच्चे, एक नौकरीपेशा पति, और एक रुटीन-सी जिंदगी। सुबह बच्चों के टिफ़िन, दोपहर घर की सफ़ाई, शाम में सबके चेहरे पर मुस्कान बनाए रखने की कोशिश उसकी दुनिया बस इतनी ही थी।

एक दिन, स्कूल की रीयूनियन की ख़बर मिली । पहले तो शालिनी जाने को लेकर हिचक रही थी। क्या पहनूंगी? क्या बातें करूंगी? सबके पास कहने को बहुत कुछ होगा, मेरे पास क्या है? फिर पति ने समझाया, "जाओ न शालिनी, थोड़ा मूड बदल जाएगा ।" तुम्हें अपनी पुरानी दोस्तों से मिलकर अच्छा लगेगा अपने पति की बात मान वह जाने को तैयार हुई और गई। 

वहां शालिनी पहुंची उसको थोड़ा अटपटा लग रहा था वहाँ वह अपने दोस्तों से मिली तभी उसने एक लड़की को देखा ब्लैक साड़ी में आत्मविश्वास की एक चलती-फिरती परिभाषा, फ्रेंच एक्सेंट वाली हिंदी में सबको हँसाते हुए, वह और कोई नहीं उसी के साथ पढ़ने वाली सोनिया थीं। तभी उसकी मुलाकात सोनिया से हुई। सोनिया कॉलेज की सबसे शांत, सीधी, अपने धुन में मस्त रहने वाली लड़की थी, जिसे लोग ज्यादा नोटिस नहीं करते थे। पर अब वह पेरिस से लौटी थी, सफल फोटोग्राफर बनकर, उसने शादी नहीं की, दुनिया घूम रहीं थीं और उसकी हर बात में आत्मविश्वास झलकता था।  बताया, कैसे उसने अपनी नौकरी छोड़ी, खुद की गैलरी खोली, यूरोप घूमी, और अभी एक डॉक्यूमेंट्री प्रोजेक्ट पर काम कर रही है।

शालिनी मुस्कुराई, तालियाँ भी बजाईं, लेकिन उसके दिल के कोने में कुछ खिंच गया। शालिनी मुस्कुराई, गले मिली, बातें कीं लेकिन भीतर कहीं कुछ चुभा। रात को घर लौट कर शालिनी ने अपनी अलमारी खोली, एक पुराना स्केचबुक निकाला जो दस साल से बंद थी। धूल में लिपटे सपनों को देखकर उसकी आँखें भर आईं। जिसमें उसने कभी डिज़ाइनर बनने के सपने बुन रखे थे। वह सपने अब बच्चों की कॉपियों, दूध के बिलों, राशन की लिस्ट और रिश्तों की दरारों में कहीं दब चुके थे।

अगले कुछ दिनों तक शालिनी की आँखों से सोनिया का चेहरा नहीं गया। वो उस हँसी को याद करती रही जो जिम्मेदारियों की थकान से आज़ाद थी। फिर ईर्ष्या ने एक और रूप ले लिया अंदर का एक मौन विद्रोह। कुछ दिनों तक शालिनी चुपचाप रही। लेकिन कुछ बदल चुका था। ईर्ष्या अब कोई विकराल दानव नहीं थी, बल्कि एक सवाल बन गई थी।"क्या वाकई यह मेरी पूरी ज़िंदगी हैं? क्या अब कुछ और नहीं हो सकता?" उसके अंदर से आवाज आयीं कोशिश तो कर सकती हो बदलाव के लिए।

शालिनी ने फिर स्केच करना शुरू किया, चुपचाप, बिना किसी को बताए। कभी फूल, कभी चेहरे, कभी ऐसी स्त्रियाँ, जिनके पास पंख थे। किचन के कोने में, जब सब सोते थे, वह रंगों में अपनी चुप्पियाँ उकेरने लगी। ईर्ष्या ने उसे भीतर से तोड़ा, लेकिन उसी ने उसे फिर रचने की हिम्मत भी दी।

एक दिन उसकी छोटी बेटी ने पूछा,

"माँ, क्या आप भी पेंटिंग करती थीं?"

शालिनी चौंकी, फिर मुस्कुराई। "हां, कभी करती थी। अब फिर कर रही हूँ।"

धीरे-धीरे उसका मन रंगों से जुड़ने लगा। वो अपने पुराने इंस्टाग्राम अकाउंट पर स्केचेज़ डालने लगी बिना नाम के।

शालिनी के पति ने एक रात उसे किचन में स्केच करते देखा।

"तुम फिर से पेंटिंग कर रही हो?" उसने सर झुका लिया, "हाँ, ऐसे ही… बस मन कर गया।" पति थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला,

"तुमने यह सब पहले क्यों नहीं बताया?"

शालिनी का जवाब सीधा था,

"क्योंकि मैं खुद ही भूल गई थी कि मैं कौन थी।"

धीरे-धीरे घर में सबने उसे जगह देनी शुरू की। बेटी उसका iस्केचबुक स्कूल ले जाती, बेटी ने अपने दोस्तों को मम्मी की ड्रॉइंग दिखाई। इसी बीच सोनिया ने शालिनी प्रोफ़ाइल देख ली थी बिना नाम वाली वह प्रोफाइल। 

एक दिन उसका मैसेज आया:

"Is that you, Shalini ? I would love to work with you please be with us for our next women's art circle."

शालिनी देर तक स्क्रीन देखती रही। फिर अपनी खिड़की से बाहर देखा जहाँ कभी सपने खत्म हो गए थे, वहीं से एक नई शुरुआत दिख रही थी। 

ईर्ष्या हमेशा गलत या नुकसान करने के लिए नहीं होती कभी कभी ईर्ष्या आत्मबोध भी कराती है अपने को ढूँढने और सपनों को पंख भी लगाती हैं।

Friday, July 25, 2025

वर्तमान का बदलाव

 आजकल के लड़के... लड़कियों से शादी करने में डरने लगे हैं और उनके परिवार वाले भी यानी उनके माता-पिता भी, मालूम है क्यों ? क्योंकि पिछले कुछ महीनो से कुछ लड़कियों ने शादी करके या तो हनीमून पर ले जाकर अपने पति को मार दिया या घर में ही टुकड़े कर दिए या किसी ड्रम में सीमेंट के साथ जमा दिया। यह जो हो रहा है ना यह लड़कों के साथ पहली बार हो रहा है और इसीलिए उनके माता-पिता आज डर रहे शादी करने से इससे पहले अगर हम पीछे जाएं यानी अतीत में जाये तो उल्टा होता था तब लड़की के मां-बाप डरते थे शादी करने से कहीं ऐसा ना हो लड़का शादी करके छोड़ दे या दहेज के मामले में लकड़ी जला दी जाए या किसी और लड़की के चक्कर में उनकी लड़की को छोड़ दिया तो कई बार लड़कियां जान से मार दी गई है कई बार लड़कियां टुकड़ों में फ्रिज के अंदर भी मिली है तब यह लड़के के माता-पिता नहीं परेशान होते थे तब लड़की के माता-पिता परेशान होते थे और यह प्रक्रिया कई वर्षों से चली आ रही है लेकिन पिछले कुछ महीने से इसका उल्टा हो गया अब लड़के के माता-पिता परेशान होते हैं कि कहीं उनका लड़का मार दिया न जाए और इस बात का घोर विरोध हुआ खूब खबरें बनी, खूब बातें बनी लेकिन यह खबरें, यह बातें तब नहीं बनी जब लड़कियां मारी जा रही थी या जब लड़कियां मर रही थी।

यह बातें,  ख़बरें  तब बनी जब लड़कियों ने लड़कों को मारना शुरू कर दिया एक नया मुद्दा भी सामने आया की लड़कियां शादी कर रही है तलाक दे रही है और उसके बदले में अच्छी खासी रकम लेकर अलग हो रही है यह अभी कुछ ही महीनों, सालों से शुरू हुआ लड़के के माता-पिता तो बहुत परेशान हो गए की है कि हमने तो शादी की और बहू ऐसी निकल गई लेकिन थोड़ा पीछे जाइए आप कुछ भूल रहे हैं यह कई सालों से हो रहा है लड़कियों के साथ कि शादी करते थे और फिर किसी न किसी बहाने चाहे दूसरी औरत, चाहे पसंद नहीं थी, चाहे पढ़ी-लिखी नहीं थी, चाहे हमारे उसके सोच नहीं मिलती किसी भी कारण से बहाना बना कर लड़कियों को छोड़ दिया जाता था तब किसी को समस्या नहीं थी।

समाज कितना बदल रहा है समाज की मानसिकता कितनी दोगली है आज लड़के के मां-बाप को बहुत तकलीफ है की लड़कियां ऐसा करती है और तब कहां थे जब उन्हीं जैसी लड़कियों के साथ यह काम हो रहा था जब चोट अपने को लगती है ना तो दर्द भी खुद को होता है जब चोट दूसरे को रखती है तो दर्द का एहसास भी नहीं होता।

आज जिसको सुनो अगर वह लड़के का माता-पिता है तो वह बहुत परेशान है की अच्छी लड़कियां ही नहीं है आजकल तो किसी पर भरोसा ही नहीं कर सकते कि हमारे बच्चे को जान से मार दे तो शादी के बाद एक ही दो महीने बाद शादी का पैसा लेकर अलग हो जाए अच्छी खासी रकम लेकर  तब भी तो अच्छी लड़की नहीं थी जब लड़कियां घरों में जलाई जाती थी दहेज के लिए छोड़ दी जाती थी, जान से मार दी जाती थी दूसरी औरत के चक्कर में उन्हें छोड़ दिया जाता था तब यह समाज कहा था तब किसी लड़की की माता-पिता को यह नहीं लगता था कि कितना खतरा है हमारे बच्चे को यह समाज की दोहरी मानसिकता अगर इस बेटे की बड़ी बहन होगी तब उनकी मानसिकता अलग होगी लेकिन अगर वह वही बेटा जिसके घर में कोई लड़की नहीं है, कोई बहन नहीं है तो उनकी मानसिकता अलग होगी इतना दिखावा इतना झूठ इतना फरेब क्यों आज क्यों डर रहे हो कल करा था तब डरे थे आज जब तुम्हारे साथ हुआ तो सब गलत हो गया सब बुरे हो गए यह तो पिछले कई सालों से औरतों के साथ होता आ रहा है औरतें जलाई गई, मारी गई, टुकड़ों में फेंकी गई तब कहा था। समाज या तब कहां थे यह समाज के ठेकेदार जो अब बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।

Thursday, July 24, 2025

वक़्त

दीप्ति और अखिलेश की शादी को चौदह बरस हो चुके हैं। दोनों का विवाह परिवार की रजामंदी से और परिवार की ही पसंद से हुआ था। दीप्ति और अखिलेश दोनों के पसंद स्वभाव और विचार एक दूसरे से मेल नहीं खाते थें। दीप्ति को फिर भी लगता था समय के साथ-साथ दोनों के विचार एक दूसरे को समझ आने लगेंगे।
दीप्ति जो कि स्वभाव से शांत, सहनशील और समझदार थी वही अखिलेश उसके बिल्कुल विपरीत स्वभाव में उछरंकल, महत्वाकांक्षी था।
दीप्ति दिन भर अपना समय घर के कामों और उसके बाद के समय को कहानी, उपन्यासों को पढ़ने में बिताती थीं। अखिलेश को सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाने और नौकरी के साथ अपना खुद का काम करने की धुन सवार रहती थीं।
अखिलेश अपने पैसे और काम के चक्कर में दीप्ति को अनदेखा करता चला आ रहा था उसको इसका एहसास भी नहीं था कि दीप्ति उसके इस व्यवहार से अकेलेपन का शिकार हो रही हैं वहीं दूसरी ओर दीप्ति खुद को अकेलेपन से बचाने के लिये किताबों में खोती जा रही थीं।
अखिलेश के इस स्वभाव से  दोनों में  दूरियां बढती जा रहीं थीं।
ऐसा नहीं कि दीप्ति ने इन चौदह सालों में कभी इस आयी दूरी को कम करने की कोशिश न की हो। शादी के शुरूआती सालों में दीप्ति ने बहुत कोशिश की पर अखिलेश के स्वभाव और बातों ने उसे बहुत आहत किया। अखिलेश से जब भी दीप्ति अपने लिए समय मांगती या कहीं साथ चलने के लिए कहती तो अखिलेश का यही जवाब आता कि थोड़ा समझदार बनो यह बातचीत,घूमना फिरना, एक दूसरे को समझना और एक दूसरे के साथ समय बिताने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी हैं अभी वक़्त है सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने का। दीप्ति जब भी कहती तुम्हें नहीं लगता हममे काफ़ी दूरियां हैं तो अखिलेश का जवाब होता घर में खाली बैठीं रहती हो किस्सा कहानी पढ़ती रहती हो इसी लिए ये सब बातें तुम्हारे दिमाग में चलती है। अखिलेश का मानना था '' वक़्त से तेज चलो तभी जीतोगे''। "टाइम इज मनी"।
धीरे- धीरे दीप्ति अखिलेश से दूर हो गई उसने खुद को किताबों में कैद कर लिया समय के साथ अपने को व्यस्त करने के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली। अब दीप्ति भी खुद में व्यस्त हो गई अब उस पर अखिलेश के व्यवहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समय गुजर रहा था इसी बीच ऐसे कई मौके आते और जाते गए जब दोनों में बहस होती और बातचीत बंद हो जाती इस सिलसिले की वजह से दोनों में बातचीत कम हो गई अब घर के काम या रिश्तेदारों के यहां आने जाने के विषय में दोनों के बीच बात होती और कभी कभार उसका अंत भी बहस या लड़ाई पर होता।
इधर अचानक ही अखिलेश की कुछ तबीयत खराब रहने लगी पर उसे पैसा कमाने की ऐसी धुन सवार थीं कि उसने अपनी सेहत की अनदेखा करना शुरू कर दिया। कहतें है ना कि waqt की मार बहुत बुरी होती हैं एक दिन अचानक अखिलेश ऑफिस में बेहोश हो गया आनन-फानन में emergency में पास के हॉस्पिटल ले जाया गया। दीप्ति को भी स्कूल में सूचना मिली कि अखिलेश हॉस्पिटल में है वह भी झट से हॉस्पिटल पहुंची तब तक अखिलेश को होश नहीं आया था तभी अखिलेश के ऑफिस के साथी से मुलाकात हुई दीप्ति की जिससे पता चला कि अखिलेश पिछले एक महीने से बहुत परेशान चल रहे थे क्योंकि अखिलेश को ऊपर से ऑर्डर आए थे कि अगर वह अपना काम सही से नहीं और समय पर नहीं देंगे तो उन्हें हटा दिया जाएगा और पिछले 6 महीने पहले अखिलेश जिस कंपनी में काम करते है उसको घाटा हो गया जिसकी वजह से बहुत से लोगों को काम से निकाल दिया गया था। अखिलेश को नौकरी जाने का बहुत अधिक डर था और वह अपना जो खुद का काम शुरू किया था उसको भी समय नहीं दे पा रहा था और उसके दोस्त ने बताया कि अक्सर उसके सर में दर्द रहता था हम लोगों ने कई बार कहा डॉक्टर को दिखा दो पर वह कहता अभी वक़्त नहीं है जब होगा तब दिखा देगा ऐसी कोई दिक्कत उसे है नहीं और वह दर्द की दवा खा कर काम में लगा रहता। दीप्ति यह सब सुन अचंभे में थी कि उसे यह सब कैसे नहीं पता लगा क्या वह वाकई वह अखिलेश से दूर हो गई या अपने में इतनी मशगूल हो गई कि आस-पास की खबर उसे रही नहीं।
तभी अखिलेश को होश आता है और वह अपने को हॉस्पिटल के बिस्तर पर और चारों तरफ खुद को लोगों से घिरा पाता है उस समय अखिलेश कुछ भी बोलने उचित नहीं समझता वह यह अब तक दीप्ति के चेहरे से अंदाजा लगा चुका था कि पिछले दिनों की सारी जानकारी दीप्ति को हो चुकी हैं तभी डॉक्टर आते है और कुछ जाँचें करने के बाद अखिलेश को आराम करने और सभी को बाहर जाने को कहते हैं। सभी बाहर चले जाते हैं अखिलेश मन ही मन आशंकित होता है कि उसको क्या हुआ है उधर डॉक्टर बाहर निकालते ही दीप्ति से कहता है इनका बी पी बहुत हाई था यह दवा समय पर नहीं लेते क्या दीप्ति ने कहा पर इनको बीपी की कोई समस्या नहीं रहती यह कोई दवा बीपी की नहीं लेते। डॉक्टर ने कहा पर बीपी की दवा अब रेगुलर लेनी पड़ेगी और इन्हें माइनर हार्ट अटैक आया था इसलिए लिए अब इन्हें अपनी सेहत का बहुत ध्यान रखने की जरूरत है और अभी तो यह बेड रेस्ट पर रहेंगे।
दीप्ति डॉक्टर की बातें सुनकर घबरा गई तो डॉक्टर ने समझाते हुए कहा घबराने की जरूरत नहीं है अभी कोई खतरा नहीं है पर आगे के लिए सतर्क और ध्यान रखने की जरूरत है और अभी तो सिर्फ आराम की जरूरत है।
दीप्ति डॉक्टर की बात सुन कर इस सोच में थीं कि अब वह अखिलेश को कैसे समझायेगी उसके लिए तो पैसा और नौकरी सबसे पहले है वह कैसे आराम करेगा खुद को कैसे समझायेगा दीप्ति खुद से सवाल कर उधेड़बुन मे लगी हुई थी।
कुछ देर बाद दीप्ति अखिलेश के कमरे में जाती है अखिलेश खिड़की के बाहर शून्य की ओर देख रहा था दीप्ति के कमरे में आने के बाद अखिलेश की तन्द्रा टूटी वह दीप्ति की ओर देख कर नज़रे झुका लेता है। दीप्ति अखिलेश के करीब बैठ कर उसका हाथ अपने हाथों में लेती है और कहती हैं आप बिल्कुल परेशान न होइए आप बिल्कुल ठीक है डॉक्टर ने बोला कोई परेशानी की बात नहीं बस कुछ दिन आराम की जरूरत है पर डॉक्टर ने एक बात कहीं हैं शायद आप सुन कर थोड़ा परेशान होंगें अखिलेश दीप्ति की ओर देखते हुए प्रश्न भरी नजरों से दीप्ति ने आगे कहा उन्होंने कहा अब कुछ दिन घर में रह कर घर के काम में बीवी का हाथ बताना पड़ेगा और उससे ढ़ेर सारी बातें करनी पड़ेगी और सुननी भी पड़ेगी यह कह कर दीप्ति अखिलेश की ओर देख कर हँस दी और उसकी यह बात सुन कर अखिलेश का चेहरा भी खिल गया जो अभी तक मुरझाया हुआ था।
अभी तक जो परेशानी अखिलेश को दीप्ति के चेहरे पर दिख रही थी वह अब गायब थी उसका चेहरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था और अखिलेश भी मन ही मन यह विचार कर रहा था कि वक्त बहुत बलवान है पूरे जीवन मैं उसके आगे भागता रहा और अपनी पत्नी को इंतजार कराया आज उसी वक्त ने ऐसी मार मारी की अब वही पत्नी मेरी साथी है और वक्त तेजी से आगे भाग रहा हैं।

Wednesday, July 23, 2025

बहू-बातन देहरी से बाजार तक

राशन की लाइन में खड़ी औरतें अपने-अपने झोले पकड़े, धूप में पसीना पोंछती हुई आपस में बातों में मशगूल थीं। उनकी आवाज़ में देहातीपन और शब्दों का वह रस था, जो सीधा गांव की मिट्टी से जुड़ा हो। एक औरत बोली, "अरे सुक्खो, तोरी बहुरिया केतनी लच्छनदार है? कहूँ, आजकल के छोरा-छोरी तो काम-धाम जानी ना चाहैं। बस मोबाइल हाथ में लिए, दिनभर बइठी रहत है।"

दूसरी ने ठहाका मारते हुए कहा, "अरे काकी, तोरी वाली तो भली है। मोरी बहुरिया तो रोटी भी जलाय देत है। कहो, गैस महंगी हो रही है, तो सुनती नहीं अपने गजरे-बिंदिया के पैसे में कटौती ना करेगी।" पीछे खड़ी एक औरत ने अपने सिर पर पल्ला ठीक करते हुए कहा, "हमारी वाली तो ऊपर से जवाब भी देती है। कहती है, ‘अम्मा, जमाना बदल गया है। अब औरतें घर के अलावा नौकरी भी करती हैं।’ अरे, नौकरी कौन मांगी थी? बस दो वक्त का खाना ही बना देती!" एतना बहोत है।

सब जोर से हंस पड़ीं। पास खड़ी एक बुजुर्ग बोली, "अरे बहुएं तो सबकी एक-जैसी हैं। ई जमाना ही खराब है। अब न सास का डर, न ससुर का लिहाज। बस, अपनहीं ठाठ में मस्त हैं।"

राशन की लाइन धीरे-धीरे बढ़ रही थी, लेकिन उनकी बातों की रफ्तार और तेज़ होती जा रही थी।

तभी एक दुबली-पतली औरत, जिसकी साड़ी की किनारी फटी थी और माथे पर पसीने की बूँदें मोती की तरह चमक रही थीं, झोला खींचते हुए बोली "अरे बाई, हम तो कहत हैं अब बहुएं ‘बहू’ ना, रानी बिटिया हो गई हैं। न कुछ पूछो, न कुछ कहो। पूछ लेओ कि ज़रा दूध गरम कर दे, तो कहती  ‘आपको तो सब काम मेरे से ही करवाना है।’ अरे हम तो सास हैं कि नौकर?"

पास ही खड़ी मोटी काली काकी ने चुटकी लेते हुए कहा -

"हमरी वाली तो और एक कदम आगे! कहती है- ‘मम्मीजी, आप पुराने ख्याल की हैं। हम हलेदी खाना खाते हैं, आप घी-तेल मत डालो।’ और खुद देखो तो इनिसटाग्राम पर छोले-भटूरे खा रही होती है।"

अरे इ इनिसटाग्राम का होत है कोई नयी बीमारी है करोना की तरह। अरे नहीं चाची इ मोबाइल में होत है। अच्छा और सबके चेहरों पर हँसी आ गई  और फिर ठहाके गूंज उठे।

एक अधेड़ उम्र की औरत, जिसकी बिंदी पसीने में बहकर गाल तक आ पहुँची थी, बोली  "अब तो हम भी सीख गए हैं... चुप रहना। बोलो तो मुँह चढ़ाती हैं। हमरे जमाने में तो सास के सामने ऊँच बइठ जाईं तो भी डर लगता था। अब की तो बहुएं सास को पढ़ा रही हैं – 'आपको भी थोड़ा पजेटिव सोचना चाहिए'!" अब ए कौन है एक औरत बोली मोबाइल में होता हुई ये तो पहली बोली नाही रे अच्छा सोचो मतलब।

सभी औरतें अब अपने-अपने अनुभवों की गठरी खोल चुकी थीं।

पीछे खड़ी एक नौजवान औरत, जो चुपचाप सब सुन रही थी, मुस्कुरा कर बोली —

"काकी, हम बहुएं भी बहुत कुछ सहती हैं, पर आप सबका तरीका ही ठसक वाला है। हर बात में बहू की ही गलती होती है क्या?"

एक पल को खामोशी छा गई। फिर वही बुज़ुर्ग काकी जो सबसे तेज बोलती थीं, मुस्कुराईं और बोलीं —

"बेटी, गलती हम सबकी है। सास भी नई बनी, बहू भी नई बनी। हम समझे बिना ताने मार देते हैं, तुम सुने बिना जवाब दे देती हो। बस यही फ़ासला है।"

अब बातों का रुख़ बदल चुका था।

धूप तेज हो चली थी, राशन की लाइन आगे बढ़ी, लेकिन औरतों के बीच रिश्तों की एक नई समझ की लाइन कहीं जुड़ती नज़र आई।

Tuesday, July 22, 2025

चाँद और उसकी आहट

 उस रात वह चांद नीम के पेड़ की डाली पर अटका था और मैं अपने कमरे की खिड़की से उसे एकटक देखे जा रही थी

वह नीम के पेड़ से मुझे और मैं कमरे की से उसे एक टक देखे जा रही थी चांद अपनी सोलह कलाओं में था और मैं विरह में थीं।

चार साल हो गए थे उस को गए।

"सिर्फ कुछ महीनों की पोस्टिंग है," उसने कहा था,

"फिर लौटकर सब ठीक कर लेंगे।"

पर कुछ भी ठीक नहीं हुआ। हर महीने एक चिठ्ठी आती थी 

शब्दों में प्रेम था, पर वाक्यों में दूरी। धीरे-धीरे वह चुप होने लगा। पहले चिट्ठी का अंतर बढ़ा, फिर शब्दों का और फिर एक दिन, पूरी ख़ामोशी।

मैंने ढूँढा भी फोन,ईमेल, रिश्तेदार -कोई जवाब नहीं।

कोई हादसा नहीं हुआ था, बस वो... चला गया था। जैसे मेरी दुनिया से खुद को काट दिया हो।

उस रात, चार साल बाद, चाँद बिलकुल वैसा ही था

जैसा उस आख़िरी विदाई वाली शाम था।

नीम की वही डालियाँ, वही हवा, पर इस बार सिर्फ मैं थी।

मैंने खिड़की से बाहर झाँका और नीचे सड़क पर एक परछाईं थी। कोई आदमी नीम के तले खड़ा था। सिर झुकाए, हवा में हल्की सरसराहट हुई, जैसे पेड़ भी उसे पहचान गया हो।

मैंने ध्यान से देखा -वही खाकी जैकेट, वही झुकी पीठ, वही ख़ामोशी। दरवाज़ा खोलने का मन हुआ, पर मन ने शरीर को बाँध रखा था। कदम नहीं उठे।

मैं बस खिड़की से देखती रही जैसे चाँद मुझे देखता रहा।

उसने धीरे से सिर उठाया और चाँदनी में उसका चेहरा साफ़ दिखा।

वो था...

पर वैसा नहीं था जैसा गया था।

थका हुआ, बुझा हुआ जैसे खुद से हार चुका हो।

पर मैं भी तो हार चुकी थी,

उसी दिन जब उसका आख़िरी ख़त आया था।

वह कुछ पल खड़ा रहा। फिर बिना कुछ कहे वापस मुड़ गया।

ना कोई दस्तक, ना कोई सफाई।

और मैं…

मैंने खिड़की बंद नहीं की, मैं चाँद को देखती रही,

वो चाँद जिसे अब सब कुछ पता था।

सुबह की रोशनी कमरे में पसर रही थी, पर मेरा मन अब भी रात में उलझा था। मैंने खिड़की से झाँका नीम का पेड़ स्थिर था, जैसे उसने रात की सारी बातों को सीने में बाँध लिया हो।

"क्या वो सच में आया था?" या मेरे मन का कोई वहम था?

मैं नीचे उतरी, वहीं नीम के तले जहाँ वो खड़ा था। मिट्टी पर हल्के-से जूतों के निशान थे ठंडे, धुँधले, जैसे कुछ अधूरे वादों की तरह। तभी पास की चाय की दुकान पर बैठा बुढ़ा रामू बोला, "बिटिया, रात को कोई आदमी खड़ा था इधर देर तक... तुझसे मिलने आया था क्या?" मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।

पर मन में एक हल्की-सी हलचल हुई तो वो सपना नहीं था और न ही वहम। मैं घर लौटी एक पुराना संदूक निकाला। वही जिसमें उसके भेजे हुए खत रखे थे पीले पड़े, पर इमोशंस अब भी गीले थे। मैंने आखिरी चिट्ठी फिर से पढ़ी:

"शायद अगली बार लौटूँ तो तुम्हारी खिड़की के पास खड़ा मिलूँ... पर समझ नहीं आता, क्या मैं उस लायक रह गया हूँ?" तो यह वादा था , जिसे उसने निभाया देर से पर निभाया। मैंने खुद से पूछा, क्या मुझे भी उसे उस वक़्त कुछ देना चाहिए था? एक शब्द? एक स्पर्श? या सिर्फ एक द्वार... जो खुला हो। मैंने वह दरवाज़ा तब खोला जब वह जा चुका था। शाम को मैंने एक चिट्ठी लिखी।

"तुम आए थे, और मैं कुछ नहीं कह सकी।

शायद डर गयी थी तुम्हारे अतीत से और डर गई थी अपने भविष्य से। पर इस बार, अगर तुम लौटो तो दरवाज़ा खुला रहेगा और मैं भी।"

मैंने वह चिट्ठी नीम की डाल पर टाँग दी।

उसी डाली पर, जहाँ पिछली रात चाँद अटका था।

अब मैं हर रात उस चाँद को नहीं देखती  अब मैं खुद चाँदनी में सोती हूँ क्योंकि अब मैं इंतज़ार नहीं करती, मैं तैयार हूँ।

नीम के पेड़ की डाल से वो चिट्ठी धीरे-धीरे सूख गई थी 

जैसे किसी पुराने रिश्ते का आखिरी आँसू।

पता नहीं वो लौटा या नहीं, पर एक सुबह मैंने खुद को लौटते देखा।

न कहीं जाने की जल्दी, न किसी के आने की उम्मीद।

बस मन के भीतर एक रास्ता खुल रहा था जिस पर अब तक मैं ही नहीं चल पाई थी। 

अब सिर्फ और सिर्फ खुद को ढूँढना था और खुद का इंतजार करना था।

Monday, July 21, 2025

अनकहा रिश्ता

 लोगों की सुबह चाय की प्याली से होती है और रक्षा और नमन की सुबह तब होती थी जब दोनों अपने घरों से वॉक के लिए निकलते थे और करीब 3-4 कि मी की वॉक एक साथ करते थे। इन सर्दियों की सुबहों में जब ठंडी हवा चेहरे को छूती, तो नमन अक्सर कहता,

"रक्षा, तुम्हारी चुप्पी भी इन गलियों की तरह सुकून देती है।"

रक्षा बस हल्की मुस्कान देती और आगे बढ़ जाती।

दोनों के बीच कोई रिश्ता तय नहीं था, न कोई वादा… पर हर सुबह जैसे एक अनकही जिम्मेदारी थी।

हर सुबह एक नया मौन संवाद होता था — शब्दों के बिना।

वो पार्क का मोड़, जहाँ गुलमोहर के पेड़ खड़े थे, उनकी वॉक का अंतिम पड़ाव होता।

वहीं पर बैठ कर दोनों कुछ मिनट शांत रहते — जैसे कुछ कहने से पहले ठहरना ज़रूरी हो।

एक दिन नमन ने अचानक पूछ लिया,

"क्या ये सुबहें यूँ ही चलती रहेंगी?"

रक्षा ने उस दिन पहली बार उसकी आँखों में देखा और कहा,

"अगर हम इन्हें रोके नहीं, तो क्यों नहीं?"

फिर उसने अनायास पूछ ही लिया,

"तुम सुबह-सुबह अकेली निकल जाती हो, डर नहीं लगता?"

रक्षा ने कुछ पल चुप रहकर जवाब दिया,

"डर  तो तब लगता था जब अपने ही घर में सुकून नहीं था। बाहर की सड़कें तो कम से कम सच बोलती हैं… सीधी हैं, साफ हैं, प्रिडिक्टेबल हैं।"

नमन कुछ नहीं बोला, बस उसके साथ चलने लगा। उस दिन के बाद हर सुबह उनके बीच एक चुप संवाद चलता — कुछ न कुछ ऐसा, जो कहे बिना भी समझ में आता।

दरअसल, दोनों ही भीतर से खाली थे -पर बाहर से मजबूत दिखते थे।

रक्षा के जीवन में एक हादसा ऐसा था, जिसने उसे अंदर से तोड़ दिया था। वो किसी मानसिक थकावट का शिकार थी, जिसे न कोई समझ पाया, न उसने जताया।

नमन भी एक तरह का मानसिक बोझ लिए चलता था — नौकरी, रिश्तों, उम्मीदों और अपने 'असफल पुरुष' होने के अहसास के बीच।

उनकी वॉक असल में एक थेरेपी थी — बिना डॉक्टर के इलाज, बिना दवा के राहत।

एक दिन नमन ने कहा,

"तुम्हें देख कर लगता है कि तुम कुछ कहना चाहती हो, लेकिन शब्द नहीं मिलते।"

रक्षा ने मुस्कुराकर जवाब दिया,

"कभी-कभी शब्दों से ज्यादा जरूरी होता है कि कोई साथ चल रहा हो - बिना पूछे, बिना ठहरे।"

कोई बीता हुआ दुख, कोई अनसुलझा सवाल।

वह सुबहें अब आदत बन चुकी थीं। पार्क की वही पगडंडियाँ, वही पेड़, वही चुप्पियाँ… लेकिन अब चुप्पियों में बोझ नहीं था। जैसे दोनों ने एक-दूसरे के भीतर के शोर को सुनना सीख लिया था।

एक दिन वॉक के बाद नमन बोला,

"तुम्हारे साथ चलना कुछ ऐसा है जैसे खुद से मिलना। पहले मैं खुद से भागता था, अब थोड़ा रुकने लगा हूँ।"

रक्षा ने पहली बार उसके हाथ पर हाथ रखा, बहुत हल्के से, जैसे कोई पंख छू गया हो। "मैं खुद को फिर से पहचानना चाहती हूँ, नमन। तुम्हारा साथ मेरे लिए दवा की तरह है… लेकिन शायद इलाज खुद को ही करना होगा।"

उस दिन उनकी वॉक थोड़ी देर तक चली — पर ज़्यादा दूर नहीं। अंत में एक चौराहे पर आकर दोनों रुक गए।

नमन ने कहा, "शायद कुछ लोग मिलते हैं सिर्फ इसलिए कि हम फिर से खुद को जोड़ सकें।"

रक्षा ने सिर हिलाया,

"और कुछ रिश्ते सिर्फ उस सफर तक होते हैं जहाँ तक हमें अपनी राह समझ आ जाए।"

उस दिन के बाद वो वॉक कम होने लगी। दोनों ने एक-दूसरे को अलविदा नहीं कहा, न ही कोई वादा किया।

पर वो सुबहें, वह संवाद — जैसे भीतर कोई दीया जलाने वाले थे।

अब रक्षा अपने घर की बालकनी में चाय पीते हुए मुस्कुराती है। नमन योगा क्लास के बाद खुद के लिए समय निकालता है। वे एक-दूसरे के साथ नहीं हैं, लेकिन एक-दूसरे की वजह से अपने साथ है।

Sunday, July 20, 2025

प्रेम – सिर्फ तुम्हारे लिए

 आपको खुद से कहीं ज्यादा चाहते हैं,

आपको उस खुदा से माँगते हैं,

आपका नाम लबों पर दुआ बनके आता है,

आपकी याद हर साँस में समाती है।


हमने इश्क़ में ये फ़र्क देखा है,

कि सब उस रब का सजदा करते हैं,

हम आप का सजदा करते हैं,

आपका होना मेरी जीने की वजह है।


आपके बिना सब अधूरा सा लगता है,

जैसे बिना सूरज के सवेरा लगता है,

आप का साथ सबसे प्यारा लगता है,

आप बिन तो सब कुछ अधूरा लगता है।


ये चाहत न रुकती है, न थमती है,

हर पल बस यूँ ही बढ़ती जाती है,

आप साथ रहे अब बस यही दुआ है,

आपके बिना अधूरी हर दुआ है।

Saturday, July 19, 2025

अलविदा

 प्रतिलिपि ने अनोखे विषय अनोखी कहानी में जो विषय दिया वह था "अलविदा पापा"। एक मन आया की लिखूं फिर दूसरे पल एक विचार आया कैसे कह दूं अलविदा पापा।

आप तो हर पल मेरे साथ होते हो मेरी बातों में तो कभी यादों में कभी मेरी आदतों में। जब कोई कहता तुम बिलकुल अपने पापा की तरह दिखती हो तो मन खुश होता और बड़े गर्व से कहती हूं कि हूँ भी तो अपने पापा की बेटी तो उनके जैसी ही तो दिखूंगी।

पापा आप से हमेशा मतभेद रहते थे पर आपको बहुत प्यार करती थीं। आपको नही पता पर मैंने हमेशा बहुत प्यार किया चाहे कितनी लड़ाई हो जाएं आप मुझे कितना डांट लें पर फिर भी आप से बात किए बिना चैन नहीं मिलता था। जब कोई कहता तुम्हारे अंदर तुम्हारे पापा के गुण है तो सुन कर अच्छा लगता। जब आप कहते तुम तो मेरे बेटे हो तो लगता कि आप मुझ पर कितना भरोसा करते। जब आप कहते तुम हमारी हिम्मत हो तो अच्छा लगता। जब आप दूसरों से कहते कि ये हमारे लिए परेशान रहती तो लगता कि अब आप जब बूढे हो गए तो हमे समझने लगें। पहले परेशान होते तो डांटने लगते थे।

पापा इतने सालों की यादें हैं, इतनी बातें है कैसे आपको अलविदा कह दूं। पापा आपके जाने के बाद आपकी एक एक बात याद करते हैं जब आप साथ थे तब समझते ही नहीं थे हम सब। पापा आप मेरे जीवन का वह पल है जो कभी भी धूमिल नहीं हो सकता ना यादों में ना बातों में तो आपको अलविदा कैसे कह दूं। जब तक मेरा जीवन है आप मेरे ख़्यालों में, बातों में, मुझ में जीवित रहेंगे आपको कभी भी इस जीवन में तो अलविदा नहीं कह सकती।

पापा आप के विचार,आप की दी हुई सीख, आपके दिए संस्कार अब मुझ से जीवित है और मेरे बाद मेरी बेटी में रहेंगे आपका वंश तो नहीं पर आपकी सीख, विचार और संस्कार जरूर आगे बढ़ेंगे।

आज भी आपकी सीख से आगे बढ़ती हूँ और जब कभी परेशान होती हूँ तो आप पहले होते है जिन्हें याद करती हूँ कि पापा होते तो ऐसा करते बस फिर हिम्मत से तैयार हो कर उस परेशानी से उबरती हूँ अब बताओ आपको कैसे अलविदा कह दूँ आप तो मेरा जीवन हैं।

पापा मैं जानती हूं आप कहीं न कहीं मेरे आस-पास हो इसलिए मैं उदास नहीं होती क्योंकि आप दुःखी होंगे। पापा यह भी सच है कि आपका मुझसे दूर जाना मुझे पूरी तरह से तोड़ और बिखरा गया पर बहुत हिम्मत और मुश्किल से मैंने खुद को सम्भाला। जब आप गए तो मेरा यही सवाल था ईश्वर से मुझे साथ क्यों नहीं ले गए मैं आपके बिना अब कैसे रहूँगी मुझे आपकी और आपको मेरी जरूरत होगीं पर धीरे-धीरे यकीन हुआ आप मुझे छोड़ कर जा नहीं सकते आप हमेशा मेरे पास मेरी हर चीज में मेरे साथ होते हो ये मैंने महसूस किया तो पापा फिर आपको अलविदा कैस कह दूँ आपको अलविदा........

Friday, July 18, 2025

अब और नहीं झुकुउँगी।

 आज कल कुछ दिनों से पीठ में दर्द रहता है पहले तो खुद का इलाज किया पर जब कुछ फायदा होता न दिखा तो डॉक्टर के पास जाना ही समझ आया।

डॉक्टर ने कहा रीढ़ की हड्डी में रिक्तता यानी जगह बन गई झुकते -झुकते डॉक्टर ने कुछ दवा और न झुकने की हिदायत देकर मुझे चलता किया।

डॉक्टर की बात सुन पशोपेश में थी कि यह सही कह रहा है या नहीं यह मुझसे झुकने को मना कर रहा है क्या मालूम नहीं उसे मैं एक स्त्री हूँ।

पूरे रास्ते इस उधेड़बुन में बीत गया कि अब जो सब ने कहा वह सही या यह डॉक्टर कह रहा वह सही।

जीवन भर सब ने कहा झुक कर चल औरत हो तुम 

माँ ने कहा छोटे भाई बहन के लिए झुक जाओ,

ससुराल में दूसरी मां ने कहा 

सम्बंध निभाने हैं इसलिए झुक जाओ, 

बाहर दोस्ती निभानी है झुक जाओ, 

रिश्तेदारी रखनी है तो झुक जाओ  

नौकरी में शांति रखनी है झुक जाओ, 

पूरा जीवन बीतने को है और सभी जगह झुकती ही आयीं कभी हालतों के सामने, कभी अपनों के लिए, कभी परायों के लिए कभी किसी की इच्छा के लिए, कभी किसी की जिद्द के लिए झुकती ही आयीं कब यह आदत बन गई पता ही नहीं चला।

आज जब डॉक्टर ने बोला झुकते - झुकते रीढ़ की हड्डी में जगह बन गई तब अचानक समझ आया कि झुकते - झुकते रीढ़ की हड्डी में रिक्तता आ गई पर कभी यह समझ आया पूरा जीवन जो सबके लिए झुकती आयीं तो हृदय में कितनी रिक्तता आ गई इसका शायद ही किसी को एहसास होगा क्योंकि हड्डी की रिक्तता तो डॉक्टर ने पढ़ ली पर मन या यूं कहें हृदय की रिक्तता को तो किसी ने नहीं पढ़ी यहां तक कि मैंने स्वयं ने भी नहीं शायद रीढ़ की इस रिक्तता का अपार दर्द शरीर झेल न सका पर अंतर्मन की रिक्तता का दर्द अन्तस्थ में ही समा गया।

देर से ही सही पर न तो रीढ़ की रिक्तता को बढ़ावा दूंगी और न ही अंतर्मन की रिक्तता को बढ़ने दूंगी।

अब और नहीं झुकुउँगी।

अब और नहीं.....

Thursday, July 17, 2025

अब लगता है उम्र हो रही हैं

 अब लगता है उम्र हो रहीं हैं 

चेहरे से नहीं 

बालों से नहीं 

इस लिए भी नहीं की भर रहा हैं शरीर 

ऐसा नहीं कि यह सब आइना दिखा या बता रहा है 

इस लिए कि अब फर्क़ पड़ना बंद हो गया 

कि कोई क्या सोचता है कोई क्या बोलता है पीठ पीछे 

अब जो नहीं समझ आता उससे दूरी बना लेती हूँ 


अब लगता है उम्र हो रही है 

खुद को प्राथमिकता देती हूँ 

खुद की खुशियाँ खुद का सूकून पहले चुनती हूँ 

चुप रहती हूँ,  मुस्करा देती हूँ और जहां कोई गलत हो उसे सुधारती भी नहीं 

अब किसी से कोई बहस नहीं करती 

थोड़ी स्वार्थी हो गई हूँ 


अब लगता है उम्र हो रही है 

अब तो तुम रूठे हम छूटे की सोच बना ली है 

किसी के पीछे भागने और मनाने से अलग हो गई हूँ 

कोई दूरी बनाए मुझसे तो अब अखरता नहीं 

खुशी- खुशी खुद को मुक्त पाती हूँ 


अब लगता है उम्र हो रही हैं 

मौन भाता है 

सुनना और सुनाना अब पसंद नहीं 

भावनाओं को बिना बोले समझने लगी हूँ 

इंसान को पहचानने लगी हूँ 

परखना अब जरूरी नहीं है 

खुद को ढूंढने लगी हूँ 

खुद की इच्छा को वरीयता देने लगी हूँ 


अब लगता है उम्र हो रही हैं 

कोई मिले तो अच्छा कोई ना मिले तो अच्छा 

गिने चुने लोगों को अपनाती हूँ 

पुराने के पीछे भागती नहीं नए को अपनाती नहीं 

अपने पर अपना वर्चस्व समझती हूँ

किसी के हाथों में खुद के खुशियाँ की डोर नहीं देती 

अब कुछ बुरा होना आशंकित नहीं करता 

अच्छा होने का इंतजार नहीं करती 


अब लगता है उम्र हो रही है 

खुद को खुद ही खुश कर लेती 

किसी के इंतजार में नहीं बैठती 

खुद को जो चाहिए खुद ही ले लेती 

अब किसी के देने का इंतजार नहीं करती 

अब लगता है उम्र हो रही 

बदलाव हो रहे हैं 

ठहराव आ रहा हैं 


अब लगता है उम्र हो रही है 

आइना नहीं बता रहा 

पर सब बदल रहा है 

अब लगता है उम्र हो रही है।।

इस जहाँ में न सही उस जहाँ में

 उम्मीद है एक अब 

हम फिर मिलेंगे इस जहाँ में न सही उस जहाँ में


वह सब करेंगे जो करना चाहते थे इस जहाँ में,

सपनों को पूरा करेंगे, जो पूरा न कर पाए इस जहाँ में 

साथ जीना तो है, इस जहाँ में ना सही उस जहाँ में

बहुत सपने हैं, आशाएं हैं, उम्मीदें हैं वह सब पूरे करेंगे तेरे साथ इस जहाँ में ना सही उस जहाँ में।


उम्मीद है एक अब 

हम फिर मिलेंगे इस जहाँ में न सही उस जहाँ में


जो तुम्हारे बंधन है यहाँ, वहाँ ना होंगे 

जो मेरी बंदिशें हैं यहाँ,वहाँ न होगीं 

ना तुम किसी के होगे ना हम किसी के होंगे

होंगे तो हम सिर्फ एक दूसरे के होंगे उस जहाँ में।


उम्मीद है एक अब 

हम फिर मिलेंगे इस जहाँ में ना सही उस जहाँ में 


कहते हैं लोग कोई जहाँ नहीं होता पर मेरा यकीन करना 

हम फिर मिलेंगे इस जहाँ में ना सही उस जहाँ में।।

Wednesday, July 16, 2025

चुप्पियां

 नंदिता एक 28 वर्षीय महिला है, जो एक छोटी सी कंपनी में एक उच्च पद पर काम करती है। उसकी ज़िन्दगी बहुत ही सुसंगत और व्यवस्थित दिखती है। लोगों के बीच उसकी छवि एक आत्मविश्वासी और सशक्त महिला की है, जिसे अपने जीवन पर नियंत्रण पूरी तरह से है। लेकिन असल में वह एक गहरी अंदरूनी चुप्पी की चपेट में है।

नंदिता का बचपन बहुत ही कठिन था। उसके माता-पिता का तलाक हो गया था और वह दोनों के बीच के तनाव का हिस्सा बन गई थी। उसकी माँ ने हमेशा उसे यह सिखाया कि, "दुनिया को दिखाने के लिए हमेशा खुश रहो।" इसी सीख के तहत, नंदिता ने कभी अपनी परेशानी को सामने नहीं आने दिया। वह हमेशा अपनी असली भावनाओं को छिपाने की कोशिश करती रहीं।

लेकिन एक घटना ने उसकी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए बदल दिया। जब वह 22 साल की थी, उसने किसी से प्रेम करने की गलती कर दी जबकि अपने माता पिता के नाकाम रिश्ते को करीब से देखा था और उस ने माता पिता के अलगाव के दंश को झेला भी था। एक करीबी दोस्त ने उसे धोखा दिया था। उस व्यक्ति ने उसकी आँखों के सामने उसकी भावनाओं के साथ खेला था। सब कुछ देखते समझते हुए भी वह सब कुछ चुप चाप देखती रहीं। उस शख्स के जाने के बाद नंदिता ने खुद से वादा किया कि वह कभी किसी को अपने दिल का हाल नहीं बताएगी। वह उसी घाव के साथ जीने लगी, और धीरे-धीरे अपने आपको समाज के सामने मजबूत दिखाने लगी।


इसी बीच नंदिता की जिंदगी में उसकी बचपन की दोस्त रागिनी वापस आती है। जिस शहर में नंदिता रहती थीं उसी शहर में उसके पति का तबादला हुआ था। रागिनी और नंदिता बचपन से ही दोस्त थे और दोनों अलग-अलग शहर में रहते जरूर थे लेकिन जब भी मौका मिलता था वह मिलते थे और फोन पर एक दूसरे का खोज खबर रखते थे। रागिनी नंदिता को और उसकी सच्चाई को समझती थी। वह जानती थी कि नंदिता के भीतर कुछ बहुत गहरे घाव हैं, लेकिन वह कभी भी उसे मजबूर नहीं करती थी। रागिनी ने हमेशा नंदिता को सपोर्ट किया, लेकिन कभी भी उसने नंदिता के अतीत के बारे में खुलकर बात करने को नहीं कहा। वह जानती थी कि नंदिता जब तक तैयार नहीं होगी, तब तक वह उसे कोई भी सलाह नहीं दे सकती।

रागिनी की यह चुप्पी कभी-कभी नंदिता को परेशान करती थी। वह चाहती थी कि कोई उसे अपनी वास्तविकता दिखाने का मौका दे, लेकिन वह खुद कभी अपने घावों को शब्दों में नहीं बदल पाई। रागिनी हमेशा उसकी मदद करने की कोशिश करता थी, लेकिन नंदिता अनजाने में उसे अपने से दूर करती जाती थी। 

इसी बीच रागिनी ने नंदिता को बताया की उसके पापा नंदिता से मिलना चाहते हैं उन्हें अपने की हुई गलती पर अब पश्चाताप हो रहा है और वह नंदिता और उसकी मां को वापस अपनी जिंदगी में लाना चाहते हैं और एक नए परिवार के रूप में नए जीवन की शुरुआत करना चाहते हैं। यह सब सुनकर नंदिता अंदर तक हिल जाती है। उसे पुरानी बातें वापस से याद आने लगती हैं कैसे उसके माता-पिता के बीच में रोज-रोज लड़ाई झगड़े होते थे, कैसे वह झगड़ा बहस गाली गलौज और कभी-कभी मारपीट तक चले जाते थे कैसे उसके माता-पिता ने अपने मत भेदों के चलते अलग होने का फैसला ले लिया और नंदिता और उसकी भविष्य के बारे में एक बार भी नहीं सोचा कैसे उसे पूरी जिंदगी बिना पिता के अपना जीवन जीना पड़ा उसे पिता के होते हुए अपनी मां की आंखों में सुनापन देखा माँ की आंखों में अपने पिता का इंतजार देखा। जब जब जिंदगी में उसे पिता की जरूरत हुई कैसे वह अकेले खुद से लड़ती रही।


रागिनी की बातों से नंदिता तनाव में आ गई। जिससे नंदिता की पुरानी यादें ताज़ा हो गई, और वह लगातार यह महसूस कर रही थी कि वह कहीं ना कहीं टूट रही है। एक शाम, जब वह ऑफिस से घर जा रही थी, वह अचानक रागिनी की कॉल आती हैं । रागिनी ने नंदिता से बात करने के दौरान पाया कि नंदिता बहुत परेशान और तनाव में है, रागिनी ने नंदिता को अपने घर आने को बोला साथ ही यह भी बताया कि उसके पति शहर से बाहर कुछ काम से गए है और उसे अकेले अच्छा नहीं लग रहा तो वह उसके पास आ जाये इस बात को सुनकर पहले नंदिता ने मना किया बोला ऑफिस का प्रोजेक्ट है उस पर काम करना है और उस प्रोजेक्ट को लेकर वह बहुत परेशान हैं। तभी रागिनी कहती है कोई नहीं तुम नहीं आ सकती हो तो मैं तुम्हारे घर आ जाती हूं और कुछ ना कुछ तो मैं तुम्हारे प्रोजेक्ट में तुम्हारी हेल्प करा दूंगी तुम परेशान बिल्कुल ना हो यह सुनकर नंदिता कहती है ऐसा कुछ नहीं है चलो मैं ही तुम्हारे घर आती हूं।

नंदिता कुछ देर में रागिनी के घर पहुंच जाती है। रागिनी नंदिता को अपने घर आया देखकर बहुत खुश होती है उसके लिए कॉफी बना कर लाती है। अपनी और उसकी काफी के कप को रख कर साथ बैठ जाती है। रागिनी साफ़ साफ़ देख सकती थीं कि नंदिता बहुत परेशान है उसके चेहरे पर तनाव,परेशानी, डर सब कुछ साफ नजर आ रहा था।


रागिनी ने कहा, "नंदिता, क्या तुम मुझसे बात करना चाहोगी? मुझे पता है कि तुम बहुत कुछ महसूस कर रही हो।"


नंदिता ने एक लंबी चुप्पी के बाद कहा, " रागिनी, मुझे नहीं लगता कि मैं अब किसी से बात कर सकती हूँ। यह सब बहुत गहरा हो गया है। मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती।"

लेकिन रागिनी ने उसे हल्के से कहा, "नंदिता, तुम कभी भी मुझे परेशान नहीं कर सकती। मैं तुम्हारी दोस्त हूँ, और तुम्हारी चुप्पियों को समझ सकती हूँ।"


नंदिता की आँखों में आंसू थे। वह धीरे-धीरे खुलने लगी, और उसने अपनी पूरी कहानी रागिनी को बताई। कैसे वह माता पिता के अलगाव से उबर नहीं पायी थीं कि एक शख्स उसकी जिन्दगी में आता, उसने बताया कि कैसे उसे धोखा दिया गया था, और कैसे उस धोखे ने उसकी दुनिया को पलट दिया था। उसने बताया कि कैसे उसने कभी अपने दर्द को बाहर नहीं आने दिया, क्योंकि वह यह नहीं चाहती थी कि कोई उसे कमजोर समझे। अब जब से तुमने बताया कि पापा वापस आना चाहते है मेरी रातों की नींद उड़ गई है समझ नहीं आता क्या करूँ, कैसे विश्वास करूँ, कैसे अपने माँ के दर्द को हरा कर दूं। नंदिता कहती है -  रागिनी चाहे कुछ भी हो जाए कुछ गलतियां ऐसी होती हैं जिंदगी में जिनका पश्चाताप नहीं होता और मेरे पिता ने कोई गलती नहीं कि उन्होंने तो वह गुनाह किया है जिसका पश्चाताप अब इस जिंदगी में तो संभव नहीं है।


रागिनी ने उसे धैर्य से सुनती, और फिर उसने कहा, "तुमने बहुत संघर्ष किया है, नंदिता। माता पिता का साथ उनका प्रेम एक बच्चे के लिए उसके भविष्य के लिए कितना जरूरी होता है लेकिन अब तुम्हारा उस घाव से बाहर निकलने का समय आ गया है। तुम अपनी कहानी को दुनिया से छिपा नहीं सकती। तुम्हें खुद से प्यार करना होगा, और अपनी असली भावनाओं को स्वीकार करना होगा।"


रागिनी नंदिता के आँसू पोछते हुए कहा, "तुम सही कहती हो। मुझे अपनी असली भावना को पहचानने और स्वीकार करने की जरूरत है। मुझे खुद को धोखा देना बंद करना होगा।"


नंदिता ने उस दिन से अपनी ज़िन्दगी में बदलाव लाने का निर्णय लिया। उसने अपने भीतर की चुप्पी को तोड़ने का फैसला किया और अपने पिता को उस गुनाह के पश्चाताप का दूसरा मौका न देने का फैसला लिया।

Tuesday, July 15, 2025

बाबा उर्फ अभय सिंह

 आजकल अखबार खोलिए या टीवी में न्यूज़ चैनल चलाइए या मोबाइल में रील या गूगल यूट्यूब खोलिए चारों तरफ बस एक ही चर्चा कुंभ 2025। जैसा की सुनने में आया है यह अफवाह उड़ गई कि यह जो इस साल का कुंभ है यह 144 वर्ष में एक बार आएगा जिसका कोई भी आधिकारिक साक्ष्य नहीं है किस तथ्य में कितनी सत्यता है कि कुछ ज्ञात नहीं। यह कुम्भ 144 साल में एक बार वाला है या 12 साल में एक बार पड़ने वाला है हम इन किसी भी बातों में ना पड़ते हुए मुख्य मुद्दे पर आए।

मेरा आज का यह लेख लिखने का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ आईआईटी बाबा जैसे बाबा हैं ना तो मैं कुंभ के बारे में लिखना चाहती हूं या यह जो कुंभ में 144 साल और 12 साल का मतभेद चल रहा है उसे पर लिखना चाहती हूं यह कुंभ कैसा रहा या कैसा नहीं रहा क्या उसमें अच्छाइयां थी वहां के तैयारी में क्या कमियां रह गई इस पर मैं कुछ भी चर्चा नहीं करना चाहती क्योंकि यह मेरे लेखन का विषय नहीं है ।

आईआईटी बाबा भी मेरे लेखन का विषय नहीं है सिर्फ मेरी इच्छा यह हुई कि जितने भी लोग मेरे लेखन को पढ़ें उनसे मैं अपनी बात को पहुंचा सकूं यह जो मीडिया है जो आईआईटी बाबा को बहुत तूल दे रही है यह कोई बहुत बड़ा अच्छा काम नहीं किया हैं उस बाबा ने।

हमारा आपका सभी का जीवन कोई परफेक्ट नहीं हैं किसी के जीवन में कभी न कभी किसी न किसी चीज की कमी रही होगी लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि हम उससे प्रभावित होकर अपने जीवन की दिशा और दशा दोनों को बदल दे। आईआईटी बाबा जो बाबा बन गए जिनको यह मीडिया बाबा की उपाधि दे रही है मैं उसे बाबा नहीं एक मनुष्य, साधारण मनुष्य की दृष्टि से देखती हूं कि एक लड़का जिसका जन्म होता है साधारण परिवार में इसके मां-बाप हमारे मां-बाप की तरह या हम यह आज 2000 की पीढ़ी की बात ना करके उससे पहले की बात करें तो हम सभी के माता-पिता में हम लोगों को पढ़ने के लिए साम दाम दंड भेद की प्रक्रिया को अपनाते थे। किसी के यहां बच्चों को सुधारने के लिए मारपीट की जाती थी, किसी को डांट फटकार के और किसी को प्यार से ही समझा दिया था। अलग-अलग माता-पिता अलग-अलग तरीके से अपने बच्चों के साथ व्यवहार करते थे और माता-पिता को यह पूरा अधिकार था कि वह अपने बच्चों के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार कर सकते हैं इसमें किसी का भी हस्तक्षेप नहीं था और हम भी उस पीढ़ी के बच्चे हैं हमने भी अपने माता-पिता की डांट मार और उलाहना को झेला है और अपनी दशा और दिशा को संवारा है। रही बात आईआईटी बाबा या उस लड़के की जिसके घर का माहौल, उसके माता-पिता के आपसी संबंध, उसके साथ उसके माता-पिता के संबंध, उसके साथ होने वाला व्यवहार मैं मानती हूं अच्छा नहीं होगा। उसे लड़के का या कहना कि मेरे घर में जो भी होता था उससे उसकी यह दशा हुई लेकिन मुझे यहां पर यह नहीं समझ में आया कि उससे उसकी यह दशा क्यों हुई उसने उस दशा को खुद समृद्धशाली क्यों नहीं बनाया। उसने खुद से यह प्रण क्यों नहीं किया कि मैं एक समृद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्ति बनूँगा परिस्थितियों से भागना ही क्यों उसने उचित समझा, अपने नाकाम प्रेम को अपनी कमजोरी क्यों बनाई । हर वह इंसान जो मेरे लेख को पढ़ रहा है या मेरा लेख जिसके पास पहुंच रहा है उसके जीवन में भी नाकाम प्रेम हुआ होगा और उसने उस नाकाम प्रेम की वजह से क्या अपने जीवन की दशा को बर्बाद कर दिया या उसने अपनी उस स्थिति को अपने ऊपर हावी होने दिया, या फिर खुद पर हावी न होने देते हुए खुद को संभाल कर आगे बढा।

परिस्थितियों से भागना आसान है यह कहना गलत है परिस्थितियों से भागना गलत है और कठिन है आसान नहीं है लेकिन भागना क्यों लोग कहते हैं कि वह परिस्थिति से भाग कर बाबा बनकर आराम से जीवन जी रहा है, यह बात कहने से पहले सोचिए आप सभी इतना पढ़ना लिखना और इतनी उपलब्धियां हासिल करने के बाद एक बाबा का जीवन जीना बहुत कठिन है ज्ञान उसके पास भरपूर है और वह उसको गुमनामी की जिंदगी जी के व्यर्थ कर रहा हैं यह भी कठिन है आप इस बात को ऐसे सोचिए ना कि आप जरूरत से ज्यादा पढ़े लिखे हैं आप बौद्धिक स्तर और शैक्षणिक स्तर पर सामर्थ्यवान है और उसके बाद आप एक गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं ।

यह बहुत कष्टप्रद होता है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि अगर वह आसान नहीं है कठिन है तो हम उस कार्य को करें हम गुमनामी की जिंदगी जिए नहीं।

मेरा मानना है कि आपके माता-पिता के आपसी संबंध अच्छे नहीं थे, आपके माता-पिता ने आपके ऊपर हर तरह का भावात्मक जोर डाला, आप प्रेम में नाकाम रहे आपके जीवन में बहुत सारी असफलताएं रहीं लेकिन आपने उन असफलताओं को क्यों देखा आपने उन सफलताओं को नहीं क्यों नहीं देखा कि उन कठिन परिस्थितियों में आप कहां-कहां सफल हुए जिसे हम लोग कहते हैं कि आप फाइटर थे अगर इतनी सारी समस्याएं थी और उसमें आप इस स्थिति में पहुंचे तो इसका मतलब आप बहुत बड़े योद्धा थे और आगे भी आपको अपने जीवन में एक योद्धा बन कर उसे समृद्धशाली बना सकते थे फिर यह बाबा बनना आपको उचित क्यों लगा।

मैं इस आईआईटी बाबा के आचरण और चरित्र का कोई भी आकलन नहीं कर रही मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य मात्र अपनी युवा पीढ़ी से एक अनुरोध मात्र है परिस्थितियां कैसी भी हो संघर्ष करना ना छोड़े सफ़लता मिलने मे देर हो सकती यह भी सम्भव हो मनोनुकूल सफ़लता ना मिले पर हार कर छोड़ देना समझदारी नहीं है।

शिक्षक दिवस

 शिक्षक दिवस की सभी को अनंत शुभकामनाएं आप सबके जीवन की पहली शिक्षिका तो माँ हैं पर दूसरी शिक्षिका या शिक्षक स्वयं जिंदगी है बहुत कुछ सिखाती ...