Tuesday, July 22, 2025

चाँद और उसकी आहट

 उस रात वह चांद नीम के पेड़ की डाली पर अटका था और मैं अपने कमरे की खिड़की से उसे एकटक देखे जा रही थी

वह नीम के पेड़ से मुझे और मैं कमरे की से उसे एक टक देखे जा रही थी चांद अपनी सोलह कलाओं में था और मैं विरह में थीं।

चार साल हो गए थे उस को गए।

"सिर्फ कुछ महीनों की पोस्टिंग है," उसने कहा था,

"फिर लौटकर सब ठीक कर लेंगे।"

पर कुछ भी ठीक नहीं हुआ। हर महीने एक चिठ्ठी आती थी 

शब्दों में प्रेम था, पर वाक्यों में दूरी। धीरे-धीरे वह चुप होने लगा। पहले चिट्ठी का अंतर बढ़ा, फिर शब्दों का और फिर एक दिन, पूरी ख़ामोशी।

मैंने ढूँढा भी फोन,ईमेल, रिश्तेदार -कोई जवाब नहीं।

कोई हादसा नहीं हुआ था, बस वो... चला गया था। जैसे मेरी दुनिया से खुद को काट दिया हो।

उस रात, चार साल बाद, चाँद बिलकुल वैसा ही था

जैसा उस आख़िरी विदाई वाली शाम था।

नीम की वही डालियाँ, वही हवा, पर इस बार सिर्फ मैं थी।

मैंने खिड़की से बाहर झाँका और नीचे सड़क पर एक परछाईं थी। कोई आदमी नीम के तले खड़ा था। सिर झुकाए, हवा में हल्की सरसराहट हुई, जैसे पेड़ भी उसे पहचान गया हो।

मैंने ध्यान से देखा -वही खाकी जैकेट, वही झुकी पीठ, वही ख़ामोशी। दरवाज़ा खोलने का मन हुआ, पर मन ने शरीर को बाँध रखा था। कदम नहीं उठे।

मैं बस खिड़की से देखती रही जैसे चाँद मुझे देखता रहा।

उसने धीरे से सिर उठाया और चाँदनी में उसका चेहरा साफ़ दिखा।

वो था...

पर वैसा नहीं था जैसा गया था।

थका हुआ, बुझा हुआ जैसे खुद से हार चुका हो।

पर मैं भी तो हार चुकी थी,

उसी दिन जब उसका आख़िरी ख़त आया था।

वह कुछ पल खड़ा रहा। फिर बिना कुछ कहे वापस मुड़ गया।

ना कोई दस्तक, ना कोई सफाई।

और मैं…

मैंने खिड़की बंद नहीं की, मैं चाँद को देखती रही,

वो चाँद जिसे अब सब कुछ पता था।

सुबह की रोशनी कमरे में पसर रही थी, पर मेरा मन अब भी रात में उलझा था। मैंने खिड़की से झाँका नीम का पेड़ स्थिर था, जैसे उसने रात की सारी बातों को सीने में बाँध लिया हो।

"क्या वो सच में आया था?" या मेरे मन का कोई वहम था?

मैं नीचे उतरी, वहीं नीम के तले जहाँ वो खड़ा था। मिट्टी पर हल्के-से जूतों के निशान थे ठंडे, धुँधले, जैसे कुछ अधूरे वादों की तरह। तभी पास की चाय की दुकान पर बैठा बुढ़ा रामू बोला, "बिटिया, रात को कोई आदमी खड़ा था इधर देर तक... तुझसे मिलने आया था क्या?" मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।

पर मन में एक हल्की-सी हलचल हुई तो वो सपना नहीं था और न ही वहम। मैं घर लौटी एक पुराना संदूक निकाला। वही जिसमें उसके भेजे हुए खत रखे थे पीले पड़े, पर इमोशंस अब भी गीले थे। मैंने आखिरी चिट्ठी फिर से पढ़ी:

"शायद अगली बार लौटूँ तो तुम्हारी खिड़की के पास खड़ा मिलूँ... पर समझ नहीं आता, क्या मैं उस लायक रह गया हूँ?" तो यह वादा था , जिसे उसने निभाया देर से पर निभाया। मैंने खुद से पूछा, क्या मुझे भी उसे उस वक़्त कुछ देना चाहिए था? एक शब्द? एक स्पर्श? या सिर्फ एक द्वार... जो खुला हो। मैंने वह दरवाज़ा तब खोला जब वह जा चुका था। शाम को मैंने एक चिट्ठी लिखी।

"तुम आए थे, और मैं कुछ नहीं कह सकी।

शायद डर गयी थी तुम्हारे अतीत से और डर गई थी अपने भविष्य से। पर इस बार, अगर तुम लौटो तो दरवाज़ा खुला रहेगा और मैं भी।"

मैंने वह चिट्ठी नीम की डाल पर टाँग दी।

उसी डाली पर, जहाँ पिछली रात चाँद अटका था।

अब मैं हर रात उस चाँद को नहीं देखती  अब मैं खुद चाँदनी में सोती हूँ क्योंकि अब मैं इंतज़ार नहीं करती, मैं तैयार हूँ।

नीम के पेड़ की डाल से वो चिट्ठी धीरे-धीरे सूख गई थी 

जैसे किसी पुराने रिश्ते का आखिरी आँसू।

पता नहीं वो लौटा या नहीं, पर एक सुबह मैंने खुद को लौटते देखा।

न कहीं जाने की जल्दी, न किसी के आने की उम्मीद।

बस मन के भीतर एक रास्ता खुल रहा था जिस पर अब तक मैं ही नहीं चल पाई थी। 

अब सिर्फ और सिर्फ खुद को ढूँढना था और खुद का इंतजार करना था।

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