राशन की लाइन में खड़ी औरतें अपने-अपने झोले पकड़े, धूप में पसीना पोंछती हुई आपस में बातों में मशगूल थीं। उनकी आवाज़ में देहातीपन और शब्दों का वह रस था, जो सीधा गांव की मिट्टी से जुड़ा हो। एक औरत बोली, "अरे सुक्खो, तोरी बहुरिया केतनी लच्छनदार है? कहूँ, आजकल के छोरा-छोरी तो काम-धाम जानी ना चाहैं। बस मोबाइल हाथ में लिए, दिनभर बइठी रहत है।"
दूसरी ने ठहाका मारते हुए कहा, "अरे काकी, तोरी वाली तो भली है। मोरी बहुरिया तो रोटी भी जलाय देत है। कहो, गैस महंगी हो रही है, तो सुनती नहीं अपने गजरे-बिंदिया के पैसे में कटौती ना करेगी।" पीछे खड़ी एक औरत ने अपने सिर पर पल्ला ठीक करते हुए कहा, "हमारी वाली तो ऊपर से जवाब भी देती है। कहती है, ‘अम्मा, जमाना बदल गया है। अब औरतें घर के अलावा नौकरी भी करती हैं।’ अरे, नौकरी कौन मांगी थी? बस दो वक्त का खाना ही बना देती!" एतना बहोत है।
सब जोर से हंस पड़ीं। पास खड़ी एक बुजुर्ग बोली, "अरे बहुएं तो सबकी एक-जैसी हैं। ई जमाना ही खराब है। अब न सास का डर, न ससुर का लिहाज। बस, अपनहीं ठाठ में मस्त हैं।"
राशन की लाइन धीरे-धीरे बढ़ रही थी, लेकिन उनकी बातों की रफ्तार और तेज़ होती जा रही थी।
तभी एक दुबली-पतली औरत, जिसकी साड़ी की किनारी फटी थी और माथे पर पसीने की बूँदें मोती की तरह चमक रही थीं, झोला खींचते हुए बोली "अरे बाई, हम तो कहत हैं अब बहुएं ‘बहू’ ना, रानी बिटिया हो गई हैं। न कुछ पूछो, न कुछ कहो। पूछ लेओ कि ज़रा दूध गरम कर दे, तो कहती ‘आपको तो सब काम मेरे से ही करवाना है।’ अरे हम तो सास हैं कि नौकर?"
पास ही खड़ी मोटी काली काकी ने चुटकी लेते हुए कहा -
"हमरी वाली तो और एक कदम आगे! कहती है- ‘मम्मीजी, आप पुराने ख्याल की हैं। हम हलेदी खाना खाते हैं, आप घी-तेल मत डालो।’ और खुद देखो तो इनिसटाग्राम पर छोले-भटूरे खा रही होती है।"
अरे इ इनिसटाग्राम का होत है कोई नयी बीमारी है करोना की तरह। अरे नहीं चाची इ मोबाइल में होत है। अच्छा और सबके चेहरों पर हँसी आ गई और फिर ठहाके गूंज उठे।
एक अधेड़ उम्र की औरत, जिसकी बिंदी पसीने में बहकर गाल तक आ पहुँची थी, बोली "अब तो हम भी सीख गए हैं... चुप रहना। बोलो तो मुँह चढ़ाती हैं। हमरे जमाने में तो सास के सामने ऊँच बइठ जाईं तो भी डर लगता था। अब की तो बहुएं सास को पढ़ा रही हैं – 'आपको भी थोड़ा पजेटिव सोचना चाहिए'!" अब ए कौन है एक औरत बोली मोबाइल में होता हुई ये तो पहली बोली नाही रे अच्छा सोचो मतलब।
सभी औरतें अब अपने-अपने अनुभवों की गठरी खोल चुकी थीं।
पीछे खड़ी एक नौजवान औरत, जो चुपचाप सब सुन रही थी, मुस्कुरा कर बोली —
"काकी, हम बहुएं भी बहुत कुछ सहती हैं, पर आप सबका तरीका ही ठसक वाला है। हर बात में बहू की ही गलती होती है क्या?"
एक पल को खामोशी छा गई। फिर वही बुज़ुर्ग काकी जो सबसे तेज बोलती थीं, मुस्कुराईं और बोलीं —
"बेटी, गलती हम सबकी है। सास भी नई बनी, बहू भी नई बनी। हम समझे बिना ताने मार देते हैं, तुम सुने बिना जवाब दे देती हो। बस यही फ़ासला है।"
अब बातों का रुख़ बदल चुका था।
धूप तेज हो चली थी, राशन की लाइन आगे बढ़ी, लेकिन औरतों के बीच रिश्तों की एक नई समझ की लाइन कहीं जुड़ती नज़र आई।
No comments:
Post a Comment