जयश्री एक म्यूजिक टीचर थी। चेहरा शांत, व्यवहार सौम्य, सीधी सरल अपने स्कूल स्टाफ के बीच बेहद पसंद की जाने वाली - कभी किसी से बहस नहीं, हमेशा मदद को तैयार रहने वाली टीचर थीं पर यह कोई नहीं जानता था कि उसकी अपनी जिंदगी में असल में वह कैसी है और उसकी जिंदगी में क्या चल रहा हैं।
इसी जयश्री के पति दीपक ने सात साल पहले, अचानक से कहा था जयश्री "मुझे लगने लगा है कि मैं अब तुम्हें नहीं समझ पाता… शायद कभी समझा ही नहीं पाया।"
यह बात जयश्री को किसी तलवार की तरह उसके भीतर धँस गई थी।
दीपक चला गया। उसकी जिंदगी से… बिना झगड़े, बिना अल्फ़ाज़ के और अपने साथ ले गया उसका विश्वास- खुद पर, रिश्तों पर, दुनिया पर।
जयश्री ने किसी से कुछ नहीं कहा। न माता-पिता से,न रिश्तेदारों से और न ही समाज से।
“अकेली हूँ” यह स्वीकार करना उसे अपनी कमजोरी लगती थी। उसने बस इतना कहा था दीपक का विदेश गये कुछ समय के लिए।” सबने मान लिया। पर हर बार वो किसी बंद दरवाज़े को देखती रही जिसे उसने खुद ही बंद किया था क्योंकि अब उसे किसी पर विश्वास नहीं रहा।
इसी बीच एक दिन स्कूल में एक नए हिंदी टीचर की नियुक्ति हुई- राघव। उम्र में थोड़ा छोटा, पर नज़रों में गहराई थी। वह सभी से बोलता था, व्यवहार से सरल, किन्तु वाचाल था सभी से घुलने मिलने वाला जल्दी ही उसने स्कूल के सभी टीचरों के मन में जगह बना ली थीं। धीरे-धीरे बातचीत उसकी जयश्री से भी होती लेकिन जयश्री ने अपने चारो ओर एक दीवार बना रखी थीं इस बातको राघव समझता था पर कभी जयश्री से कहा नहीं।
एक दिन उसने जयश्री से हिम्मत करके कहा- “आपकी आंखों में कुछ अधूरी कहानियाँ हैं।” जयश्री चौंकी। उसे पहली बार किसी ने इतने ध्यान से देखा था,
जैसे उसने चेहरे के पीछे की सच्चाई पढ़ ली हो। जयश्री को ठीक नहीं लगी राघव की बात क्योंकि उसने उसे इतना गहराई से उसे देखने और ऐसे बोलने की छूट नहीं दी थीं।
उस दिन जयश्री बिना कुछ बोले वहाँ से चली गई। कुछ समय बाद राघव ने फिर जयश्री से बातें शुरू की अब वह रोज़ थोड़ी-थोड़ी बातें करता- कभी कविता की, कभी मौसम की।
पर अब कहीं न कहीं उसके शब्द जयश्री के भीतर कहीं गूंजने लगे थे। जयश्री समझ नहीं पा रहीं थी। वह तो अपने चारों ओर एक रेखा खींच चुकी थी और विश्वास किसी पर करना तो सवाल ही नहीं था।
एक शाम राघव का फोन आया स्कूल के कुछ काम के सिलसिले में इधर उधर की बात के बाद राघव ने कहा,
“क्या मैं आपको एक बात कहूं, बुरा मत मानिएगा…
जयश्री थोड़ा संजीदा हो गई अब तक उसकी आवाज़ भी बदल गई जब वह कुछ बोल पाती तब तक राघव ने बोल दिया- मुझे लगता है आप किसी टूटे विश्वास से भाग रही हैं।”
जयश्री को लगा जैसे किसी ने नब्ज़ पकड़ ली हो। उसने हडबडाते हुए कहा राघव आपको ऐसा क्यों लगता हैं और उसने बात को वही खत्म करते हुए फोन काटने की कोशिश की पर राघव फिर बोला क्यों भाग रहीं हैं खुद से, और कहां भाग रही है और कबतक भागेंगी। कभी न कभी खुद पर और किसी और पर विश्वास तो करना पड़ेगा न जयश्री थोड़ा ठिठक गई अब तक वह कमजोर पड़ने लगी पहली बार किसी ने उसे पढ़ा था।जयश्री ने गहरी सांस ली और बस इतना कहा, “विश्वास… वो शब्द है जो एक बार चला जाए, तो लौटकर नहीं आता।” राघव चुप हो गया।
जयश्री ने राघव से कहा अब रखतीं हूँ और फोन काट दिया।
रात को जयश्री ने दीपक के पुराने मैसेज पढ़े।
कोई पछतावा नहीं था उसमें, कोई वापसी की चाह नहीं। वापस फोन रख दिया कुछ देर सोचने के बाद उसने
फिर मोबाइल उठाया और राघव को सिर्फ एक पंक्ति भेजी:
“क्या हम सिर्फ बात कर सकते हैं… बिना कोई रिश्ता बनाए, बिना भरोसे की शर्त रखे?”
फोन स्क्रीन देर तक जलती रही… उधर से कोई जवाब नहीं आया। काफी देर इंतजार के बाद जब जवाब नहीं आया तो अनगिनत सवालों से उलझती हुई जयश्री कब सो गई पता न चला।
अगली सुबह उसकी आंख देर से खुली। रात नींद देर से आई थी पर आंखें भारी नहीं थीं। उसका फोन तकिए के नीचे था।
उसने डरते हुए स्क्रीन देखा —
राघव का जवाब आया था:
“बिलकुल।
हम शब्दों से शुरुआत करेंगे।
बिना किसी वादे, बिना किसी मांग के।”
जयश्री कुछ पल स्क्रीन देखती रही।फिर मुस्कुराई बहुत हल्की सी। शायद महीनों बाद।
आज बहुत देर हो गई थी इसलिए जयश्री जल्दी - जल्दी स्कूल समय से पहुंचने के लिए प्रयासरत हो गई।
स्कूल में राघव रोज की तरह स्टाफ रूम में पहले से मौजूद था। जयश्री आई - आँखों में हल्की चमक थी।
राघव ने देखा, मुस्कुराया, और गुडमॉर्निंग बोलकर अपने काम में लग गया। थोड़ी देर बाद राघव एक चाय का कप उसकी ओर बढ़ाता है- “चीनी कम, अदरक ज़्यादा, जैसी आपको पसंद है।” जयश्री चौंकी। “तुमने कैसे जाना?”
राघव बोला “शब्दों से नहीं, नजरों से जाना।” यह कह राघव हँसने लगा इस बार जयश्री भी हँसी - पर इस बार यह हँसी बाहर से नहीं, भीतर से आई थी।
दिन गुज़रते गए दोनों अच्छे दोस्त बन चुके थे अब
हर दिन एक छोटी-सी बात- मौसम पर, किताबों पर, पुराने गानों पर।
कभी किसी ने अतीत नहीं खोला, न राघव ने पूछा, न जयश्री ने बताया।
बस एक अनकहा समझौता था —
“हम साथ हैं, पर किसी ‘नाम’ के बंधन में नहीं।
पर हर शाम, जब जयश्री घर लौटती, एक सवाल उसके भीतर गूंजता “क्या मैं दोबारा विश्वास कर सकती हूं?”
“या यह भी बस एक और धोखा होगा?”
फिर वह खुद से कहती- “नहीं, ये रिश्ता कोई मांग नहीं रहा।
यह बस साथ चल रहा है - जैसे नदी के साथ बहती हवा।”
अचानक एक दिन, राघव ने स्कूल से छुट्टी ली और कोई खबर नहीं दी। जयश्री थोड़ा परेशान हुई कि कहीं कुछ हुआ तो नहीं? दिन भर इंतजार के बाद बहुत हिम्मत करके उसने खुद पहल की पहली बार-
“आज तुम्हारी चाय छूट गई… उम्मीद है सब ठीक है।”
कुछ ही देर में जवाब आया “सब ठीक है। कल डबल चाय पिया जाएगा।” उसी रात जयश्री ने अपनी डायरी खोली।
बहुत दिनों बाद उसमें लिखा:
“शायद भरोसा कोई चीज़ नहीं होती जिसे हम किसी को ‘दे’ दें, वह तो बस उगता है धीरे-धीरे - जैसे सुबह की धूप उगती हैं।” हाँ पर विश्वास को खोते देर नहीं लगती।
अगली सुबह स्कूल जाते वक्त जयश्री ने मोबाइल उठाया।
उसका ध्यान व्हाट्सएप पर एक नए नंबर से आए मैसेज पर गया।
"जयश्री, मैं दीपक हूँ।
अगर बात करने का मन हो… तो मैं सुनना चाहता हूँ।
सिर्फ एक बार।" उसके हाथ ठिठक गए। दीपक इतने दिनों बाद! जिसने एक दिन कहा था, “मैं अब नहीं समझ पाता तुम्हें,” और बिना कुछ बोले चला गया था आज कह रहा हैं- “मैं सुनना चाहता हूँ।”
आज पूरे दिन जयश्री के मन में उथल-पुथल रही पूरे दिन वह खुद से लड़ती रही। “क्या मुझे जवाब देना चाहिए?”
“क्या ये अंत है?” “या एक और घाव खुल जाएगा?”
राघव स्टाफ रूम में क्लास ले कर वापस आया।
उसने जयश्री की आँखों में बेचैनी देखी,
जिसे वो अब बहुत अच्छे से पहचानने लगा था।
उसने जयश्री से पूछा “सब ठीक है?” जयश्री का जवाब आया
“शायद नहीं… दीपक ने इतने सालों बाद आज अचानक मैसेज किया है।”
राघव कुछ नहीं बोला वह अब तक समझ चुका था कि दीपक कौन हैं? सिर्फ इतना कहा -“अगर तुम बात करना चाहो, तो मैं साथ रहूंगा।
पर ये निर्णय तुम्हारा है — सिर्फ तुम्हारा।” स्कूल से छुट्टी के बाद शाम को, बहुत देर तक छत पर बैठने के बाद,
जयश्री ने दीपक को कॉल किया। फोन उठते ही वह बोली
“क्या सुनना चाहते हो, दीपक?
मेरी चुप्पी की व्याख्या? या तुम्हारे ‘समझ ना पाने’ की माफ़ी?”
दीपक हिचका क्योंकि अब तक जयश्री की यह आवाज यह तरीका उसके लिए नया था
दीपक ने कहा- “नहीं… मैं बस कहना चाहता हूँ कि मैंने उस वक्त बहुत कुछ नहीं देखा… और तुमने कुछ कहने नहीं दिया।”
जयश्री की आँखें भर आईं, पर आवाज़ सख्त रही —
“हाँ, मैंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि तब मेरा हर शब्द —
तुम्हारे ‘विश्वास’ से छोटा था।”
“अब कुछ कहना नहीं चाहती हूं। " "न ही कुछ सुनना चाहती हूँ।'"
अब सिर्फ खुद को सुनना चाहती हूँ।
और जानती हूँ। अब मुझे तुम्हारी ‘माफी’ की ज़रूरत भी नहीं हैं यह कह कर जयश्री ने कॉल काट दी।
कॉल काटने के बाद,
जयश्री ने आईने में देखा -और पहली बार, खुद को देखा।
बिना किसी मुखौटे के, बिना किसी शर्म के, बिना किसी पछतावे के।
उसने अपनी डायरी में लिखा:
“मैं टूटी थी, पर मैं झुकी नहीं।
मैंने खामोशी में बहुत कुछ सहा,
पर अब मैं बोल सकती हूँ - और सबसे पहले, खुद से।”
यह कि मैंने दीपक को तलाक दिया हैं।
अगले दिन जब वह स्कूल गई तो कुछ अलग थी।
चेहरे पर शांति थी, पर अब वो अंदर से थी पूरे आत्मविश्वास
से भरी थीं अब जैसी बाहर थीं वैसे ही अंदर से थीं।
राघव पास आया और पूछा:
“आज कुछ हल्का लग रहा है?” और अच्छा भी लग रहा हैं।
“हाँ,” जयश्री मुस्कराई,
“क्योंकि आज मैं खुद पर भरोसा कर रही हूँ — पहली बार।
जयश्री मुस्कराते हुए राघव से कहती हैं-" विश्वास खोते देर नहीं लगती" पर विश्वास करने में उम्र बीत जाती हैं।
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