Monday, August 18, 2025

बारिश

 अनीता को बारिश हमेशा से ही पसंद थी और अगर जब भी बारिश सुबह के समय होती तो वह भीग भी लेती छत पर जा कर। उसे बारिश में भीगना गाने सुनना बहुत पसंद था और साथ ही छत पर या घर के आंगन या बाहर कहीं पानी भर जाता तो वह नाव भी बना कर तैरा देती थीं और फिर दूर तक अपनी नाव को जाते हुए देखती थीं।

अनीता इसके लिए मायके में मां से अक्सर डांट खाती और सुनती भी कि कब तक यह बचपना तेरा चलेगा अनीता अब तो बड़ी हो जा ससुराल जाएगी तो हम लोगों को बात - बात पर सुनवाएगी बस तू। अनीता इस बात पर हमेशा अपनी मां से लड़ती कि वह कहीं नहीं जा रही यह घर उसका हैं और मां कहती पागल हो गई हैं तेरा अपना घर तेरे पति का घर होगा तेरा घर तो तेरा ससुराल होगा लड़की का मायका कभी उसका अपना घर हुआ हैं। मां कि इस बात पर अनीता हर बार कि तरह चिढ़ जाती और कहती ठीक है आप अपना घर अपने लाड़ले बेटे को दो मैं तो आपके लिए पराई हूं उस पर मां कहती तू क्या हर लड़की अपने मां - पिता के लिए पराई ही होती है इसमें मुंह फुलाने जैसी कोई बात नहीं हैं समझी।

कुछ समय बाद अनीता की शादी हो गई वह अब अपनी गृहस्थी में उलझती जा रहीं थीं उसका शादी के बाद का सफर बहुत सुन्दर तो नहीं रहा पर उसने कभी कोई शिकायत नहीं की अपने घर में इस उम्मीद में कि माँ का मानना है कि यही तुम्हारा अपना घर हैं अब यही रहना है। माँ कभी उसकी परिस्थिति नहीं समझेंगी धीरे-धीरे उसकी जिंदगी बदतर होती जा रहीं थीं उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कहाँ जाये किस्से कहें फिर एक दिन वह हिम्मत करके उस घर से निकल ली बिना इस बात के परवाह किए कि कौन क्या सोचेगा , आगे क्या होगा , कौन उसके साथ खड़ा होगा और सबसे बड़ा प्रश्न कहाँ जायेगी उसके पास कुछ भी नहीं फिर भी वह निकल ली सब छोड़ कर। अनीता अपने घर नहीं जाना चाहती थीं क्योंकि वह जानती थी मां वापस वही भेज देंगी उसे समझा कर उसने अपनी मौसी की बेटी को फोन किया सारी बातें उसे बतायी और यह भी बताया की वह घर नहीं जाना चाहती वह क्या करे वह उससे बड़ी थी उसने कहा तुम यहाँ मेरे पास आ सकती हो कभी भी पर अभी तुम्हें अपने घर जाना चाहिए क्योंकि नहीं तो तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हारे चाल चलन पर उँगली उठाएंगे अनीता ने कहा पर दीदी मुझे अब फर्क़ नहीं पड़ता। उन्होंने कहा अभी तुम घर जाओ अगर मौसी जबरदस्ती तुम्हें वापस घर भेजे तो तुम मेरे पास आ जाना बिना कुछ सोचे। अनीता दीदी की बात मान वह घर चली गई। 

अनीता ने घर पहुंच कर सारी बात अपनी मां को बताई पर जैसा उसने सोचा उसका उल्टा हुआ माँ ने गले लगाते हुए बोला बेटा यह तुम्हारा अपना घर है और अब वहाँ वापस जाने की कोई जरूरत नहीं। मां की बातें सुन अनीता के आँखों में आँसू आ गए और वह माँ से लिपट कर खूब रोई।

आज सुबह से बारिश हो रही थी अनीता को आज बारिश बेचैन कर रही थीं आज वह बारिश में भीगी नहीं बल्कि हाथ फैलाकर बारिश की बूंदों को पकड़ना चाह रहीं थीं। तभी पीछे से माँ की आवाज आती हैं आज भिगोगी नहीं उसने पलट कर माँ की तरफ देखा पर कुछ बोली नहीं और फिर आसमान की तरफ देखने लगी दूर आसमान में बादल गरज रहे थे। उसे लगा, जैसे वे भी उसकी बेचैनी समझते हों।

        अगले दिन बारिश रुक चुकी थीं पर हवा में नमी थीं अनीता छत पर गई आज भी बादल आसमान में थे छत पर टहलते हुए उसकी नज़रे पड़ोस के पुराने घर पर गई जहां उसका पुराना दोस्त राहुल रहता था। वह सोच ही रही थी आज कितने सालों बाद छत पर आयीं हूँ पहले जब भी आती थी तब राहुल ऊपर मिलता था कैसे -कैसे मुँह बनाता था कभी -कभी जब पतंग उड़ाता तो उसके छत पर पतंग नीचे कैसे लाता था सब बातें पुरानी हो चुकी थी सब अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो चुके हैं। अभी अनीता अतीत में खोयी ही थीं कि पीछे से आवाज़ आती हैं 

"तुम अब भी बारिश में भीगती हो?" अनीता चौंकी, पीछे पलट कर देखती हैं सामने राहुल होता है वह कहना तो चाहती थीं कि अभी वह उसी को याद कर रहीं थीं पर कह न पायी और राहुल से पूछती हैं  "तुम्हें कैसे पता?" और तुम यहाँ कैसे? तुम तो दिल्ली में रहते हो न।

राहुल मुस्कराते हुए आराम से एक साथ कितने सवाल कर रही हो? पहले सवाल तुम्हें कैसे पता का जवाब देता हूं।

कैसे भूल सकता हूँ कि तुम बचपन में मेरी बनाई नाव छीनकर दौड़ जाया करती थी।"

दोनों हंस पड़े, लेकिन उस हंसी में कहीं बीते वक्त की मिठास भी थी और एक अजीब-सी कसक भी। फिर राहुल ने बताया कि वह दिल्ली में नौकरी करता, वहाँ बस नहीं गया और यहां उसका अपना घर है तो वह यहां आ सकता।

अनीता ने महसूस किया कि उससे बात करते हुए उसका मन हल्का हो रहा है जैसे कोई उसके अंदर की बेचैनी को बिना कहे ही समझ रहा हो।

शाम को हल्की बारिश फिर से शुरू हो गई, अनीता आंगन में बैठी चाय पी रही थी, तभी राहुल उसके घर आया। उसके हाथ में पुरानी लकड़ी का एक डिब्बा था, जो शायद नमी से भीग चुका था। वह डिब्बा अनीता की तरफ बढ़ाते हुए "यह तुम्हारे लिए है।"

अनीता ने पूछा क्या है इसमें राहुल बोला खोल कर देखो  अनीता ने डिब्बे को सावधानी से खोला उसमें रखी हुई छोटी-छोटी कागज़ की नावें थीं, जिन पर धुंधली स्याही से उसका नाम लिखा था।

"यह... यह तुम्हारे पास कैसे?" अनीता ने हैरानी से पूछा।

राहुल हल्का-सा मुस्कुराया, लेकिन आंखें गीली हो गईं।

"जब तुम मेरे से छीनी नावें पानी में छोड़ती थी…  तो मैं चुपके से उन्हें पकड़कर रख लेता था और इकट्ठा करता संभाल कर क्योंकि मुझे लगता था, एक दिन यह तुम्हें लौटा दूंगा।" अनीता हंस पड़ी, "ये कैसी बचपने वाली बात है!"

राहुल की आवाज़ भारी हो गई, "बचपना ही तो एकमात्र चीज़ है जो मुझे अभी तक बचा के रखे हुए है… वरना मैं तो… शादीशुदा भी हूं और… तलाक की कगार पर खड़ा हूं।"

अनीता चुप रह गई। बाहर बारिश तेज हो रही थी।

राहुल ने धीमे से कहा - पता है अनीता, हम दोनों शायद अलग-अलग वजहों से अकेले हैं… लेकिन ये बारिश… शायद हमें फिर से जोड़ सकती है। अब तक बारिश तेज रफ्तार पकड़ चुकी थीं और अनीता का चाय का कप भी खत्म हो चुका था। अनीता ने राहुल को वहां अकेला छोड़ अंदर आ

गई और अपना कमरा बंद कर लेट गई। अनीता के मन में सैकड़ों सवाल चल रहे थे राहुल को लेकर। अनीता उस रात देर तक सो नहीं पाई। राहुल की बातें, उसका भीगा चेहरा, और वह कागज़ की नावें सब उसके मन में जैसे लहरें मार रहे थे।

मां की बातें याद आईं "लड़की का घर तो उसका ससुराल होता है" लेकिन  फिर अनीता सोचती अगर लड़की का ससुराल ही घर न लगे, तो?

अगले सुबह बारिश थम चुकी थी। हवा में ठंडक थी, लेकिन अनीता के भीतर का मौसम अब भी भारी था। वह छत पर गई, वहां राहुल पहले से खड़ा था। हाथ में दो कागज़ की नावें थीं। राहुल कहता है आज हम दोनों नाव छोड़ेंगे," राहुल ने कहा, "शायद यह हमें बता दें कि हमें कहां जाना है।" फिर दोनों ने नावों को पानी में छोड़ा। एक नाव धीरे-धीरे दूर चली गई, दूसरी बीच रास्ते में फंस गई। अनीता ने देखा और हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा, "शायद यही फर्क है हमारे रास्तों में।" राहुल ने अनीता की आंखों में देखा, "और अगर मैं उस फंसी हुई नाव को धक्का दे दूं, तो?" अनीता ने कोई जवाब नहीं दिया। वह बस पीछे हट गई और सीढ़ियां उतरने लगी। बारिश फिर शुरू हो गई थी और धीरे-धीरे तेज़ हो रही थीं, जैसे आसमान भी उनके जवाब का इंतज़ार कर रहा हो। नीचे पहुंचकर उसने खिड़की से झांककर देखा राहुल अब भी पानी में झुका अपनी नाव को आगे बढ़ा रहा था… और अनीता सोच रही थी क्या मैं भी एक दिन लौटकर इस नाव को अपना रास्ता दूंगी, या इसे यूं ही बह जाने दूंगी? तभी हवा के साथ हल्की-सी नमी उसके चेहरे को छू गई जैसे किसी ने चुपके से उसकी हथेली थाम ली हो। उसे याद आया, बचपन में वह हर नाव को देखकर सोचा करती थी कि वह कहां जाएगी, किन लहरों से टकराएगी, किन किनारों पर टिकेगी।

आज पहली बार उसे एहसास हुआ कि इंसान भी नावों जैसा ही होता है अपनी मंज़िल चुनने का हक शायद हर किसी को नहीं मिलता। राहुल उस दिन के बाद उससे मिलने नहीं आया। लेकिन हर बारिश में, आंगन में पानी भरते ही अनीता अब भी एक नाव छोड़ देती  बिना नाम लिखे, बिना मंज़िल तय किए। शायद कहीं, किसी मोड़ पर, वही नाव राहुल तक पहुंच जाए और अगर न भी पहुंचे, तो कम से कम बारिश को पता होगा कि उसने एक बार फिर किसी का दिल हल्का कर दिया है।

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