Thursday, February 23, 2023

तारों वाली कोठी (भाग 1)

 

यह कहानी उत्कर्ष और श्री की हैं जो उम्र के एक ऐसे पड़ाव पर मिले जहां न प्रेम की अभिलाषा रह जाती है ना ही आगे कुछ नया होने की उम्मीदl
उत्कर्ष तक़रीबन पैंतालीस साल का होगा तो वही श्री चालीस साल के आसपास l दोनों की मुलाकात एक बैंक में होती है जहां श्री कुछ कागज बनवाने जाती है वही उत्कर्ष अपने स्टाम्प पेपर लेने जाता है l दोनों ने वहां एक दूसरे को देखा पर वैसे ही जैसे कोई अजनबी किसी को पहली बार देखता है यहां यह नहीं कहेंगे कि कोई उनके प्रेम की शुरुआत फिल्मी ढंग से हुई कि जब श्री ने उसे देखा तो वह से देखती रह गई या जब उत्कर्ष ने श्री को देखा तो वह उसे देखता ही रह गयाl
          उत्कर्ष ने अपना काम करते हुए एक बैंक अधिकारी से बात की इत्तेफाक से उसी बैंक अधिकारी से श्री अपना काम पहले से करवा रही थी उत्कर्ष के उस बैंक अधिकारी से बात करने के लहजे को देखकर श्री प्रभावित हो गई उत्कर्ष के बात करने के अंदाज में कुछ तो था जो श्री उसकी ओर खिचती चली जा रही थी वह उत्कर्ष को एक टक निहारे जा रही थी बिना किसी बात की परवाह किए तभी अचानक उत्कर्ष का ध्यान श्री की ओर जाता है उत्कर्ष को अपनी ओर देखते हुए श्री थोड़ा सकुचा जाती है और उसके बाद वह अपने काम के साथ-साथ चोरी - छुपे, गाहे-बगाहे उत्कर्ष को देखती है इत्तेफाक से उसी समय उत्कर्ष भी उसे देखता है जिसके कारण दोनों की नज़रे आपस में मिलती हैं l
      उसके बाद जब तक कि दोनों अपने - अपने कामों से फ्री नहीं हो जाते तब तक दोनों बैंक में रहते हैं और दोनों ही एक दूसरे को छुपी हुई नजरों से देखते रहते हैं पर दोनों में से कोई भी एक दूसरे से बात नहीं कर पाते और न ही एक दूसरे को हेलो बोलने की हिम्मत कर पाते l कुछ समय बीत जाने के बाद उत्कर्ष अपने पेपर लेकर वहां से जाने के लिए निकलता है और पलट - पलट कर श्री की ओर देखता है कि शायद श्री उससे सामने से बात करें या अपना मोबाइल नंबर उसे दे पर ऐसा कुछ होता नहीं और उत्कर्ष वहां से मायूस होकर निकल जाता है वहीं दूसरी ओर श्री जल्दी-जल्दी अपना काम निपटाती है इस उम्मीद से की शायद उत्कर्ष उसका बाहर इंतजार कर रहा हो l श्री अपना सारा काम खत्म करके दस मिनट के भीतर बाहर जाती है उसकी नजरें चारों ओर उत्कर्ष को ढूंढ रही होती है अफसोस उत्कर्ष उसको कहीं भी नहीं मिलता फिर वह मायूस होकर अपनी कार में बैठकर घर की ओर निकल लेती है पर पूरे रास्ते में भी श्री की नजरें उत्कर्ष को ही ढूंढ रही होती है। लेकिन श्री को पूरे रास्ते में उत्कर्ष कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता फिर वह भी मन को समझाते हुए कि अगर किस्मत में हुए तो दोबारा मिलेंगे और घर की ओर चली जाती है पर उसके अंतर्मन में कहीं एक कोने में उत्कर्ष ऐसा बस जाता है की श्री उसके ख्यालों से खुद को अलग नहीं कर पाती वहां से अपने घर तक उत्कर्ष के बारे में सोचते हुए जाती है l
उदास मन लिए हुए श्री अपने घर पहुंच जाती हैं घर पहुंच कर जब कुछ देर के लिए खाली बैठती है तो वह उसकी बातों को बार-बार दोहरा के सोच रही होती है l उन बातों को सुन कर ही तो श्री ने उत्कर्ष का नाम जाना था। अब आगे वह यह सोच कर परेशान थी कि क्या दोबारा वापस से कहीं उत्कर्ष से मुलाकात होगीं या आज की मुलाकात ही पहली और आख़िरी होगी l
                                              क्रमशः.......


तारों वाली कोठी (भाग 2)

 श्री इसी उधेड़बुन में थी कि वह कैसे उत्कर्ष तक पहुंचे या उससे बात हो पाए या उससे मुलाकात| अचानक उसके दिमाग में एक विचार आता है आज के युग मे...